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________________ ४०० मरु-गुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का वृहद् इतिहास यह गीत आपने अपने गुरु खरतरगच्छीय प्रसिद्ध आचार्य जिनसिंह सूरि के सम्बन्ध में लिखा है । राजसिंह-आप खरतरगच्छीय वाचक नयरंग के प्रशिष्य एवं विमल विनय के शिष्य थे। श्री अ० च० नाहटा ने इन्हें नयरंग का ही शिष्य कहा है।' यथा 'इनके शिष्य (नयरंग के राजसिंह रचित विद्याविलासरास सं० १६७९ चंपावती और आरामशोभा चौपइ सं० १६८७ वाहड़मेर एवं कई गीत और स्तवन प्राप्त हैं।' आप वस्तुतः नयरंग के शिष्य विमल विनय के शिष्य थे क्योंकि विद्याविलासरास अथवा विनयचट रास (सं० १६७९ वैशाख, चंपावती) में कवि ने अपनी गुरु परम्परा इस प्रकार बताई है-- वाचनाचारिज जगिजयो रे, श्री नयरंग जतीस, वाचकवर गुण आगलो अ, श्री विमलविनय तसु सीस । ताससीसरंगे कही अ, राजसिंह आणंद; विद्याविलासनृप गाइयो ओ दान अधिकसुखकंद । इससे स्पष्ट है कि आप नयरंग के प्रशिष्य और विमलविनय के शिष्य थे और यह रचना दान के माहात्म्य से सम्बन्धित है। रचनाकाल इन पंक्तियों में दिया गया है-- संवत सोल गुण्यासीयइ, मास वैशाख सुहाइ, नयरि चंपावती जाणीए रे, संतीसर सुपसाय । दानपुण्य के बारे में कवि लिखता है-- दानपुण्य फलगाइयइ, दाने सिवसुख जोइ, दाने माने महिमती दाने देव वसि होइ । विद्याविलास नृप पामीया, दाने सुख सनमान, चरित कहुं हिव तेहनो, सुणिज्यो भविक सुजान । आदि-श्री जिनवरमुखवासिनी, प्रणमु सरसति माय, कवियण वयण समुच्चरइ ते सारद सुपसाय ।। १. अगर चन्द नाहटा-परम्परा पृ० ७४ २. जैन गुर्जर कविप्रो भाग ३ पृ० २२७-२२८ (द्वितीय संस्करण) ३. वही, १ पृ० ४४६-४७ और भाग ३ पृ० १०३४-३५ (प्रथम संस्करण) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002091
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages704
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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