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________________ ३९८ मरु-गुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का वृहद् इतिहास बुधवार, को सम्पूर्ण हुई। भाषा और काव्यत्व के उदाहरणार्थ इसकी प्रारम्भिक पक्तियाँ प्रस्तुत हैं आदि अजित संभव जिन, अनुपम श्री अभिनन्दन, वंदन सुमति पद्मप्रभ नितु करुं ओ। श्री सुपार्श्व जिन सप्रेम, चंद्रप्रभ श्री अष्टम, नवमा सुविधिनाथ वंदन करु ।' रचनाकाल संवत सोल बरस बहुत्तरी जेठ सुदी बुधवार, तिथि त्रीजनिदिनिरास पूरण अहबु मंगलकार । नगर थिरपुर रुयड, जिहांकरइकमलावास; जिहां वसइ बड़व्यवहारिआ, मतिधर्म उपरिजास । इसमें भी उपरोक्त गुरुपरंपरा दी गई है। इसकी अन्तिम पंक्तियाँ इस प्रकार हैं : बीनवइ वाचक राजसागर रास अह रंगि मुदा, नरनारि भावि संभलइ, तसु संपजइ घरि संपदा । राजसागर-तपागच्छीय विजयदान सूरि की परम्परा में हर्षसागर के शिष्य थे। आपने सं० १६४३ के आसपास ८ कड़ी की एक साम्प्रदायिक रचना 'लुकामतनी स्वाध्याय' नाम से लिखी। इसके प्रारम्भ में लुकामत की स्थापना और लोकाशाह के सहयोगी लखमसी का उल्लेख है-- शंखेश्वर जिन करू प्रणाम, नितु समरुं सहगुरुनु नाम; बोलिसि बोल सिद्धांतइ घणा, भविक जीवनइहितकारणा। संवत पनर अठोत्तरइ जोइ, नामइं लुको लखतो सोइ, मुहि माग्यो गरथ नापिउ कुणइ, जिनशासन थी फयौततखिणइ । १. जैन गुर्जर कविओ भाग १ पृ० ४८५-८६ और भाग ३ पृ० ९६२-६४ (प्रथम संस्करण) २. वही, ३ पृ० १७० (द्वितीय संस्करण) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002091
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages704
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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