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स्थल भी उपलब्ध होते हैं । 'नर्मदा सुन्दरीरास' की रचना सं० १६९५. में हुई । इसमें नर्मदा के सतीत्व एवं शील पर प्रकाश डाला गया है । विजयाशेठ रास की अन्तिम पंक्तियों से इनकी भाषा शैली का अनुभव हो जायेगा -
राजसागर उपाध्याय
कृष्णपक्ष शुक्लपक्ष ना गुण गाया मनोहार, जेहवा गुरुमुखि सांभल्या, तेहवो रच्यो अधिकार ।"
राजसागर उपाध्याय - पीपलगच्छ के धर्मसागर सूरि की परंपरा में आप विमलप्रभ सूरि के प्रशिष्य और सौभाग्यसागर सूरि के शिष्य थे । आपकी दो रचनाओं का विवरण उपलब्ध हो सका है
'प्रसन्नचंद्र राजर्षिरास' और 'लवकुशरास' जिनका विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है ।
प्रसन्नचंद्र राजर्षिरास' (सं० १६४७ पौष कृष्ण ७, थिरपुर ) -
रचनाकाल
अह संबंध रचीउ मई रुयडउ, सास्त्र तणइ अनुसारि, आप मति करि अधिकउ कहिउ, ते खमयो नरनारि । सोल सठताल ओ पोस मासिइ भलइ, बहुल सातमि गुरुवार, थिरपुर नयरि निरुपम रुयडइ चंद्र शाखा गुणधार ।
गुरुपरम्परा - पीपलगच्छे गिरुया गुणसागर, श्री धरमसागर सूरि; तसुपटि श्रीविमलप्रभ सूरिवर, दुरित पणासे दूरि । लही प्रसाद ते गुरु केरउ, प्रसन्नचंद्र ऋषिराय, गाइयु मिई कविता जन इम कहे रे,
सीधा वंछितकाज ।
इसके प्रारम्भ में ऋषभदेव से लेकर गौतम विस्तृत वंदना है - प्रथम दो पंक्तियां देखें
गणधर तक की
पढम तित्थे सुणवर, प्रणमु रिसह जिणंद, चरणकमलसेवइ सदा, मुणिसुर असुरनरिद ।
दूसरी रचना - ' लवकुशरास' को रामसीतारास या शीलप्रबन्ध भी कहते हैं । ५०५ कड़ी की यह कृति सं० १६७२ ज्येष्ठ शुक्ल ३, १. जैन गुर्जर कविओ भाग १ पृ० ५७४ ( प्रथम संस्करण ) और भाग ३ पृ० ३०६ (द्वितीय संस्करण )
२. वही, भाग ३ पृ० १६८-६९ (द्वितीय संस्करण)
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