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________________ मरु-गुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का वृहद् इतिहास राजरत्नगणि -आप तपागच्छीय लक्ष्मीसागर सूरि> चंद्ररत्न> उभयभूषण>उभयलावण्य>हर्षकनक>हर्षलावण्य>विवेकरत्न> श्री रत्न> जयरत्न के शिष्य थे। आपकी दो रचनायें – 'नर्मदासुन्दरीरास' और विजयसेठ विजया सेठानी रास प्राप्त हैं। दूसरी रचना का अपरनाम 'कृष्णपक्षीय शुक्लपक्षीय रास' भी है। यह ४० कड़ी की रचना सं० १६९६ में ईडर में पूर्ण हुई। इसमें चंदन मलयागिरि से सम्बन्धित कथा भी है। इसका प्रथम छन्द इस प्रकार है। श्री विमलाचल मंडणो आदिनाथ जिनचंद, नामइनवनिधिसंपजइ, पूज्यई परमानन्द ।' इसके पश्चात् शांतिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर की वंदना है। इसमें नाना प्रकार की देशी और ढालों का प्रयोग किया गया है। ढाल १ 'इणि अवसरि नगरी कावेरी' इस देशी की तर्ज पर कवि सरस्वती की वंदना करता है श्री जिनवदन नलिन स्थितकारी, श्रुतदेवी गुण गाऊं संवारी, सिद्धिबुद्धि लहुंसारी कलहंस ऊपरिआसनधारी, जयगति त्रिभुवन माँहि संचारी, पहियो वेष विस्तारी, पयसोवन घूघर धमकारी, उरि नवसर वरमोतिनहारी, करि चूडी खलकारी। जड़ित मनोहर भूषण भारी, अमृत भीनी लोचन तारी, सारद नाम उचारी। रचनाकाल-रस निधि रे दरशन शशी संवच्छरइ रे (१६९६) ईडरनगरमझारि; श्री पोसीना पार्श्वनाथ सुपसाउलइ रे, कहि राजयरतन उवझाय भावइ रे । यह रचना शील के महत्व पर प्रकाश डालने के उद्देश्य से लिखी गई है। इसमें विजयसेठ विजया सेठानी की कथा के अन्तर्गत चंदनमलयागिरि की उपकथा भी सम्बद्ध है। इसकी भाषा परिष्कृत और छंद प्रवाहपूर्ण है। कथाबंध के साथ साथ यत्र-तत्र सरस काव्यात्मक १. जैन गुर्जर कविओ भाग १ पृ० ५७४, और भाग ३ पृ० ३०६ (द्वितीय संस्करण) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002091
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages704
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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