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कविराज मल
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समयसार की यह टीका पहली भाषा टीका कही गई है । यह पुरानी खण्डान्वयी शैली में लिखी गई है । शब्दों का पर्याय देकर उनका अर्थ बताया गया है। इसकी भाषा को नाहटा जयपुरी या ढूंढाड़ी कहते हैं । भगवानदास तिवारी उसे हिन्दी कहते हैं किन्तु वस्तुतः वह मरुगुर्जर है जैसा कि निम्न उदाहरण से स्वयं स्पष्ट हो जायेगा, यथा-
कोई जीव मदिरा पीवाइ करि अविकल कीजै छै, सर्वस्व छिनाइ लीजै छै ।
पद ते भ्रष्ट कीजै छै तथा अनादि ताई लेइ करि सर्व जीव राशि राग द्वेष मोह अशुद्ध करि मतवालो हुआ छै तिहि तै ज्ञानावरणादि कर्म को बंध होइ छै । '
सर्वनाम और क्रियाओं का अर्थ जान लेने पर वचनिका का भावार्थं सुगम हो जाता है ।
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कवि राजमल - डा० कस्तूरचंद कासलीवाल इन्हें ही 'छंदोविद्या का लेखक बताते हैं । यह ग्रन्थ संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और हिन्दी में निबद्ध है । यदि कवि राजमल और पांडे राजमल्ल एक ही व्यक्ति हों तो वे केवल गद्य लेखक ही नहीं कवि भी सिद्ध होते हैं । छन्दो विद्या की रचना कवि राजमल ने श्रीमालवंशीय राजा भारमल्ल के लिए की थी । यह नागौर का संघपति था । छंदो विद्या को 'पिंगलशास्त्र' भी कहा जाता है । इससे तत्कालीन हिन्दी कविता और भाषा का अच्छा परिचय प्राप्त होता है । भारमल्ल अकबर का समकालीन प्रभावशाली धनाढ्य वैश्य था इसके पास राजे-युवराज भी आते थे
ठाढ़े तो दरबार राजकुमार वसुधाधिपति; लीजैन इक जुहारु भारमल्ल सिरिमालकुल ।
इसमें संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और हिन्दी के छन्द शास्त्र का अच्छा विवेचन किया गया है ।
१. हुकुमचंद भारिल्ल - राजस्थानी गद्य साहित्य, राजस्थान का जैन साहित्य, पृ० २४७
२. श्री अगरचन्द नाहटा-परंपरा पृ० ९२
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