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________________ ३९० मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास आगे कवि कहेता रहे, अधविचि काई ऊण; धरि छेदडे ओछ्रे अधिक, तें करिस्युं परिपुन्न ।' सप्तव्यसन पर चौपाई (१३७० कड़ी सं० १६४१ पौष शुदी ५. रविवार, खंभात) आदि-प्रणम्य परमा भक्त्यां जिनान चैव सरस्वती, व्यसनानां कथां कुर्वे नाम्ना रत्नप्रदीपिका । माँ शारदा की वन्दना के पश्चात् कवि कहता है : मति विण यश मांगू कवि तणुं, हंसा रुपे म होसिइ घणु। ऊर्ध्व वक्षफल लेवा काजि, वामन परि विभासिऊं आज । पांडव हरी चक्री नृप चरी, अतुल उदधि तखु भुजे करी, पर्वत सिरिसी भखी बाथ, पुण मुझ सिरि सुगुरुनो हाथ । रचनाकाल चंद्र वेद रस पहुवीमान, वारमास सितपोष प्रधान, पंचम तिथि रविवार दिणेस, खंभनयर श्री पास जिणेस ।' इस प्रकार इनकी अनेक रचनाओं के आधार पर इन्हें १७वीं शताब्दी के श्रेष्ठ रचनाकारों में गिना जाना चाहिये । मुनिराजचन्द-आप एक साधु थे लेकिन आपकी गुरु परम्परा का पता नहीं चल पाया है। आपकी एक रचना 'चंपावती सील कल्याणक' (सं० १६८४) उपलब्ध है जिसकी प्रति दिगम्बर जैन खण्डेलवाल, उदयपुर के शास्त्र भण्डार में सुरक्षित हैं। इसमें १३० पद्य हैं । इसके अन्तिम दो पद्य उदाहरणार्थ प्रस्तुत हैं-- सुविचार धरी तप करी, ते संसार समुद्र उत्तरी। नरनारी सांभलि जे रास, ते सुख पामी स्वर्ग निवास । रचनाकाल-- संवत सोल चुरासीइ एह, करी प्रबन्ध श्रावण वदि तेह । तेरस दिन आदित्य सुद्ध वेलावही, मुनिराजचंद्रकहि हरखज लही । १. जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० १२७-१३५ (द्वितीय संस्करण) १. वही ३. डा० करतूरचन्द कासलीवाल-राजस्थान के जैन संत पृ० २०७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002091
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages704
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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