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रत्नसुन्दर
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रत्नवती चौपाई अथबा रास (४०३ कड़ी, सं० १६३५ श्रावण वदी २, रविवार खंभात) का आदि -
सकल सिद्धि नबनिधि दीइ, जिनचउवीसि देव,
आपइ वाणी अति भली, सांची सहिगुरु सेव ।' अंत-पोतनपुरवरिरुडइठामि, श्रीमुखि वीरि प्रकासिउ ताम ।
रत्नवती सती संबंध, निसुणी जीव वार्या भवबंध । रचनाकाल -
सोल पांत्रीसि श्रावण मासि, वदि बीज रवि दिन उल्हासि, खंभनयरि श्री थंभणा पासि, रत्नवतीन रचीउ रास । रत्नवती सतीनुचरित्र भणता गुणता पुण्य पवित्र,
कविता कोइ म देशु खोडि, रत्नसुन्दर प्रणमइ कर जोडि । शुकबहोत्तरी कथा चौपइ का दूसरा नाम कवि ने रसमजरी भी बताया है। यह सं७ १६३८ आसो सुदी ५ सोमवार को खंभात में लिखी गई है। आदि
सयल सुरासुर माया, मंगल कल्याण सुजस जयनिलय,
वर विज्जा घण दाया, सा सारदा पढम पणमामि । कवि संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी और गुजराती भाषा के प्रयोग में प्रवीण लगता है । रचनाकाल--
सोल से आठत्रीसो सार, आसो सुदि पंचमि शशिवार,
पूनिमपक्ष गछपति गणधार, श्री गुणमेरु सूरि गरु सार । रचनास्थान -गुज्जरदेश त्रंबावतिठाम, थंभण पास तीरथ अभिराम, सांन्निधि श्री जिनशासणि करी,
ओ कही कथा शुकबहोत्तरी। छप्पय गाहा दहा चोपई, वस्तू अडयल पदबंधे थइ । संख्या सर्व सणेयो सही, शत चौबीस ऊपरि अ कही।
प्रसिद्ध नाम से शुकबहुत्तरी, बीजे नाम ओ रसमंजरी। कवि रचनाओं के अनेक नाम रखने का शौकीन लगता है। इसमें कवि ने सम्पूर्ण शुकबहुत्तरी कथा कहने का दावा किया है, यथा१. जैन गुर्जर कविओ भाग १ पृ० २३०-३४, भाग ३ पृ० ७२०-२५ और __ भाग ३ खंड २ पृ० १५१३ (प्रथम संस्करण)
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