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रत्नसार
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चोपइ सं० १६६२ में दीपावली को लिखी गई थी । यह रचना दान के महत्व को रत्नपाल के चरित्र के आलोक में प्रकाशित करती है । इसके मंगलाचरण में ऋषभ के साथ शांति, नेमि, महावीर और गौतम गणधर की वंदना की गई है ।
पहिलउं प्रणमं प्रथम जिण आदीसर अरिहंत, नाभि नरेसर कुलतिलउ, विमलाचलि जयवंत । दान सम्बन्धी पंक्तियाँ
रतनपाल कुमरइ दियउ, पूरब भवि जलदान, तिणि पुण्यइ रस तुंबडउ पाम्यउ राजप्रधान । रतनपालनी चउपइ कहिस्युं श्रुत अनुसारि, सानिधि करेयो सारदा लहियइ वचन बिचार | रचनाकाल - सोलहसइ बासठि समयइ महिमावतिपुर मांहि, दीपोत्सव पूरण थयउ, अह प्रबन्ध उमाहि । गुरुपरम्परा - खरतरिगछि गुरु परगडउ तेजइ जीसइ सूर, महिमावंत मुणीसरु श्री जिनमाणिक सूरि । शिष्य विनयगुण सोभता, विनयसमुद्र गणीस, वादी गजमद गंजता, प्रतपइ छइ तसु सोस । वाचक वादि शिरोमणि श्री गुणरतन मुणिंद, 3 तासु सीस गणि इम भणइ रतनविशाल आदि ।
अन्तिम पंक्तियाँ
गुण अनन्त छइ साधुना केता मुखि कहवाइ, सहस जीभ जउ मुखि हवइ, तउ पिण पूर्ण न थाइ । श्री खरतरगछ राजियउ युगप्रधान जिनचंद, जसोवाद भागइ भयउ प्रतपउ जां रविचंद | तासु राजि मई इम भण्यउ, मुनिवर चरित प्रकाश, अह प्रबंध सुणता हवइ अंगइ अधिक उल्हास |
रत्नसार - आपने सं० १६४५ में 'सागरश्रेष्ठि नी कथा' लिखी । कवि और कृति के सम्बन्ध में अन्य विवरण अनुपलब्ध है । २
१. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० ८९४-९५ (प्रथम संस्करण ) ; भाग ३ पृ० २२ २३ (द्वितीय संस्करण )
२. वही भाग १ पृ० २८७ (प्रथम संस्करण)
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