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मरु-गुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास सूरि के समय हुई। इससे अधिक इस कवि और इसकी कृति के सम्बन्ध में सूचनायें नहीं उपलब्ध हो पाई।'
रत्नविमल--आप तपागच्छीय सौभाग्यहर्ष के प्र-प्रशिष्य, प्रमोदमंडन के प्रशिष्य एवं विमल मण्डन के शिष्य ये। सौभाग्यहर्ष सूरि को सं० १५८३ में खंभात में सूरि पद पर प्रतिष्ठित किया गया था। साह सोमसिंह ने इस अवसर पर महोत्सव किया था। रत्न विमल ने अपनी रचना 'दामनकरास' का रचनाकाल नहीं दिया है किन्तु इसकी प्रति सं० १६३३ की लिखित प्राप्त है। अतः यह रचना १७वीं शताब्दी के प्रारम्भिक चरण की है । इसका प्रारम्भ इन पंक्तियों से हुआ है--
वचन सरस दिउ सरसती, विद्वज्जननी मात; वीणा पुस्तक धारणी हंसगमनि विख्यात । एकमना थइ जेह नर जपि निरंतर नाम,
तेहनि तूसी भारती, जगि विस्तारइ नाम । यह रचना जीवदया के दृष्टान्तस्वरूप लिखी गई है। सम्बद्ध पंक्तियाँ देखिये
जिन सरसति गुरु तेह तणा, पायकमल पणमेवि, दामनग कुअर तणउ, रास रचिउ संखेवि ।
भूतलि स्वर्ग समान खंभनयर अभिराम कि, विवहारी आवसि अ, पुण्यि उल्हासि । तिहां से रचिउं रास प्रणमी थंभण पास कि, ऊलट आपणि ओ रत्नविमल भणइ ।
रत्नविशाल -आप खरतरगच्छ के जिनमाणिक्य के शिष्य विनयसमुद्र के प्रशिष्य एवं गुणरत्न के शिष्य थे। आपने सं० १६६२ में 'रत्नपाल चौपाई' महिमावती में लिखी। इसमें ४९९ पद्य हैं। आपने सं० १६८२ में 'मुल्तान पार्श्व स्तवन' (३१ पद्य) लिखा। रत्नपाल
१. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० ७१० (प्रथम संस्करण) २. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० ७३२-३४ (प्रथम संस्करण) भाग २
पृ० १६०-१६१ (द्वितीय संस्करण) ३. श्री अगर चन्द नाहटा-परम्परा, पृ० ७६
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