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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
आसोमास सोहामणो सुदिपंचमी बुधवार,
ए रचना पूरी करी सांभलो भविजन सार ।' इसका आदि देखिये
सकल सुरातुर पद नमी नमूते जिनवर राय, गणधर गोतम नमू बहु मुनि सेवित पाय । सुखकर मारिगवाहिनी, भगवती भवनी तार, तेहतणांचरण कमल नमूजे वीणा पुस्तकधार । श्री ज्ञानभूषण ज्ञानी नमू, नमूसुमतिकीर्ति सुरिंद,
दक्षण देसनो गछपतिनमू श्रीगुरुधर्मचन्द । इससे स्पष्ट है कि जिनदत्तरास के कर्ता रत्नभूषणसूरि मूलसंघ बलात्कार गण के भट्टारक ज्ञानभूषण के प्रशिष्य एवं सुमतिकीर्ति के शिष्य थे। अतः रुक्मिणीहरण और उषाहरणरास के कर्ता तथा जिनदत्तरास के कर्ता रत्नभूषणसूरि एक ही कवि हैं। रत्नभूषण का समय १७वीं शताब्दी निश्चित है। अतः ये तीनों रचनायें उसी काल की हैं। श्री रत्नभूषण ने अन्तिम रचना जिनदत्तरास हांसोट नगर में लिखी
श्री हांसोट नगर सुहामणं श्री आदि जिनंद भवतार, तिणि नगरे रचना रची जिनसासनि शृङ्गार ।
इसकी अन्तिम पंक्तियाँ इस प्रकार हैं
जे नरनारी ये भणिसि भणावसि तेह घर मंगलचार, श्री रत्नभूषण सूरीश्वर इम कहिसी,
आदि जिणंद जयकार । इन तीनों रचनाओं की भाषा अन्य दिगम्बर लेखकों के समान सरल हिन्दी है जिस पर राजस्थानी-गुजराती प्रभाव यत्र-तत्र दिखाई पड़ता है। इसीलिए इस प्रकार की भाषा शैली का नाम मरुगुर्जर रखा गया है।
१. सं० डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल--राजस्थान के जैन शास्त्रभंडारों की ___ग्रन्थसूची ५वां भाग पृ० ६३४-६४० २. वही
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