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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास है। यह भी सूरत में सं० १६७८ में लिखी गई, जैसा कि कवि ने स्वयं लिखा है___ 'वसुमुनि रस शशि'...। इनकी गद्यशैली का नमूना प्राप्त नहीं हो सका।'
रत्ननिधान--'ऐतिहासिक जैन काव्यसंग्रह' में आपकी दो रचनायें संकलित हैं। 'जिनचंदसूरि गीतानि' शीर्षक के अन्तर्गत १५ वीं रचना 'गुरुजी गीत' (१७ कड़ी) के अन्त में पाठक रत्ननिधान ने लिखा है
श्री जिनचंद सूरीसरु चिरजपउ जुगह प्रधान रे,
इणिपरि गुरु गुण संथुणइ पाठक रत्ननिधान रे ।' इससे स्पष्ट है कि ये खरतरगच्छ के युगप्रधान जिनचंदसूरि के शिष्य हैं । आपने दूसरे गीत 'गहुँली' में भी जिनचंद को सुगुरु बताया है, यथा -
सुगुरु मेरउ कामित कामगवी, मनसुद्ध साही अकबर दीनी, युगप्रधान पदवी ।
रत्नभूषण सूरि-आप दिगम्बर परम्परा के भट्टारक ज्ञानभूषण > प्रभाचंद्र > सुमति कीर्ति के शिष्य थे। मरुगुर्जर भाषा में आपकी तीन रचनाओं का पता चला है- रुक्मिणीहरण, अनिरुद्धहरण अथवा ऊषाहरण और जिनदत्तरास । रुक्मिणीहरण में गुरुपरंपरा इस प्रकार है। गुरुपरंपरा के अनुक्रम में गौतम, पद्मनंदी, विद्यानंदी, मल्लिभूषण, लक्ष्मीचंद और वीरचंद, ज्ञानभूषण आदि को गिनाया है -
तेह अनुक्रमि रे रत्नभूषणसूरि रे, रत्नभूषण जेहसार, श्री ज्ञानभूषण चरण नमि कहे ऋषीमणिहरण विचार ।
१. जैन गुर्जर कवियो भाग १ पृ० ६०२,, भाग ३ पृ० ९८९ और भाग ३
खंड २ पृ० १६०५ (प्रथम संस्करण) तथा भाग ३ पृ० १९५-१९६
(द्वितीय संस्करण) २. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह-जिनचन्द सूरि गीतानि १५वां और ३०वां
गीत।
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