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रत्नचंद
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भट्टारक रत्नचंद-- आप भट्टारक सकलचन्द्र के शिष्य थे। इनकी अबतक केवल एक कृति 'चौबीसी' प्राप्त है। यह सं० १६७६ में लिखी गई। इसमें २४ तीर्थङ्करों का गुणानुवाद किया गया है। अंतिम २५वें पद्य में कवि ने अपना परिचय दिया है। रचनाकाल कवि ने इस प्रकार बताया है
संवत सोल छोत्तरे कवित्त रच्या संघारे,
पंचमी सु शुक्रवारे ज्येष्ठ वदि जान रे। गुरुपरम्परा-मूलसंघ गुणचंद्र जिनेन्द्र सकलचंद्र,
भट्टारकरत्नचंद्र बुद्धि गछभांण रे । आत्मपरिचय
त्रिपुरो पुरोपि राजस्वतो ने तो अम्रराज, भामोस्यो मोखलराज त्रिपुरो बखाण रे। पीछो छाजू ताराचंद, छीतरछंद, ताउ खेतो देवचंद एहुं की कल्याण रे।'
रत्नचंद I-आप बड़तपगच्छी य समरचंद्र के शिष्य थे । आपने सं० १६४८ आश्विन ५, शनिवार को 'पंचाख्यान अथवा पंचतन्त्र चौपाई की रचना की।२ इनका और इनकी कृति का अन्य कोई विवरण तथा रचना से उद्धरण उपलब्ध नहीं है।
रत्नचंद II--आप तपागच्छीय उपाध्याय शांतिचंद्र के शिष्य थे। आपने सं० १६७६ पौष शुक्ल १३ को सूरत में सम्यकत्वसप्तति का बालावबोध (सम्यकत्व रत्नप्रकाश) लिखा। इसकी अन्तिम पंक्तियाँ इस प्रकार हैंरचनाकाल- रस मुनि रस शशि वर्षे पौष शुक्ले त्रयोदशी दिवसे,
सूरत वंदिर मुख्य परमार्हत संघ श्रमणीये । इसकी कथा जैन कथा रत्नकोश भाग ३ में प्रकाशित है। आपकी दूसरी रचना 'संग्रामसुर कथा' भी सम्यकत्व के ऊपर ही आधारित
१. डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल - राजस्थान के जैन संत पृ० १९५ २. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० ७९० (प्रथम संस्करण) और भाग २
पृ० २५१ (द्वितीय संस्करण)
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