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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
अपेक्षा नहीं रखता । लगता है कि रत्नकीर्ति को कबीर, सूर, मीरा के पदों और संस्कृत के विरह काव्यों से प्रेरणा मिली थी । वे स्वयं -संस्कृत के अच्छे विद्वान् थे पर उन्होंने हिन्दी ( मरुगुर्जर) में रचनायें की और अपने शिष्यों को भी इसी भाषा में लिखने का उपदेश दिया । आपने 'नेमिनाथ विनती' भी लिखी है । विषय के चुनाव से कवि की भावुक प्रवृत्ति का परिचय मिल जाता है । नेमिराजुल आख्यान से भिन्न आपने 'महावीर गीत', सिद्धधुल' और 'बलिभद्र नी 'विनती' आदि रचनायें भी लिखी हैं किन्तु भाषा एवं भाव की दृष्टि से आपके पद अति उत्कृष्ट हैं । इनके अलावा नेमिराजुल आख्यान सम्बन्धी रचनाओं में कवि का मन अधिक रमा है अतः वे विशेष रमणीय हैं। शेष रचनायें भी सरस हैं । '
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रत्नकुशल—आप तपागच्छीय महर्षि के प्रशिष्य एवं दामर्षि के शिष्य थे । आपने सं० १६५२ में 'पंचाशक वृत्ति' लिखी जिसमें अपने गुरु दामर्ष का उल्लेख किया है । सं० १६५२ के आसपास ही आपने पार्श्वनाथ संख्या स्तवन लिखा जो प्राचीन तीर्थमाला संग्रह (g० १६९१७० ) में प्रकाशित है । इसका आदि इस छंद से हुआ है
श्री जीराउलि नवखंड पास वषाणीइ रे नामइ लील विलास,
संकट विकट उपद्रव सविदूरइ टालइ रे, मंगल कमला वास ।
इसकी अन्तिम पंक्तियाँ देखिये
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भोग संयोग ते पामइ मानव नव नवारे जास तूसइ श्री पास,
गणि दामा शिष्य रतनकुशल भगतिइ कहइरे
आपो चरणई वास । २
१. डा० हरीश शुक्ल — जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता को देन
पृ० ८५-८२
.२.
जैन गुर्जर कविओ भाग १ पृ० ३९२ (प्रथम संस्करण ) तथा भाग २ पृ० २८८ (द्वितीय संस्करण )
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