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भट्टारक रत्नकीर्ति
३७९. राजुल कभी सोचती है कि नेमि ने पशुओं तक की पुकार सुनी पर मेरी नहीं सुनते और एक पद में कहती है 'सखी री नेमि न जागी पीर ।' पदों के अलावा आपने 'नेमिनाथ फाम' और नेमिनाथ बारहमासा नेमि-राजुल के मार्मिक आख्यान पर ही लिखा है। फाग में ५७ पद्य है । यह हांसोट में लिखा गया। राजीमती की रूपशोभा का वर्णन कवि की इन पंक्तियों में देखिये
चंद्रवदनी मृगलोचनी, मोचनी खंजन मीन, वासग जीत्यो वेणिइ, श्रेणिय मधुकरदीन । चिबुक कमल पर षट्पद आनन्द करे सुधापान ।
ग्रीवा सुन्दर सोभती, कंबुकपोल ने बान । नेमि बारहमासे में १२ त्रोटक छंद हैं । यह घोघानगर के चैत्यालय में लिखा गया। ज्येष्ठमास से सम्बन्धित कुछ पंक्तियाँ देखिये । इस मास में विरहिणी को काम सर्वाधिक सताता है
आ ज्येष्ठमासे जग जलहर नो उमाह रे, काई बाप रे बाय विरही किम सहे रे। आरत ते आरत उपजे अंग रे,
अनंग रे संतापे दुख केहे रे ।' डा० प्रेमसागर जैन भट्टारक रत्नकीति द्वारा 'काम' शब्द के प्रयोग की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि काम शब्द कामदेव का नहीं अपितु विरहका सूचक है जैसे कालिदास की इस पंक्ति 'कामार्ता हि प्रकृत कृपणः-‘में काम का प्रयोग विरह के अर्थ में है। लेकिन निवेदन यह है कवि ने केवल 'काम' का ही नहीं 'अनंग' शब्द 'अनंग रे संतापे' का भी प्रयोग किया है और यह भी विरह के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है पर यह विरह का पर्यायवाची नहीं है। मैं इन प्रयोगों के लिए किसी स्पष्टीकरण की आवश्यकता नहीं समझता। ऐसे स्पष्टीकरण इसलिये आवश्यक लगते हैं क्योंकि ये लोग कवि को केवल संत मानते हैं, साथ ही कवि और सरस साहित्यकार नहीं समझते। भ० रत्नकीर्ति बड़े सहृदय, भावुक और सरस कवि थे। आपके पदों में राजुल की रूपशोभा और सुन्दरता तथा वियोग की मार्मिक दशा का सुन्दर अंकन हुआ है। इसी प्रकार कवि ने परंपरित ढंग से बारहमासे में कामपीड़ा का वर्णन भी किया है और किसी प्रकार के बचाव या वकालत की १. डा० प्रेमसागर जैन-हिन्दी जैन भक्तिकाव्य पृ० १०७-११०
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