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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
कंठ कंबू सम रेखा त्रय राजे रे, कर किसलय सम नख छवि छाजे रे।'
वस्तुतः यह उनके यथार्थ सुन्दरता वर्णन से अधिक परिपाटीविहित सौन्दर्य वर्णन का एक अंश लगता है। आपकी प्रेरणा से संघपति मल्लिदास ने बलासड नगर में विशाल प्रतिष्ठा कराई थी। इसका वर्णन तत्कालीन कवि जयसागर ने एक गीत में किया है, उसकी दो पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं
पालखी चामर शुभ छत्र, राजगामिनी नाचे विचित्र,
घाट चूनडी कुंभ सोहावे, चंद्राननी ओडीने आवे । आपके कई शिष्य अच्छे सन्त और साहित्यकार थे। उनमें कुमुदचंद्र, गणेश, जयसागर और राघव के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं । इनके पट्टधर कुमुदचंद्र ने तो प्रायः अपनी सभी रचनाओं में अपने गुरु का सादर स्मरण किया है। राघव ने अपने एक गीत में इनके राजसम्मान का संकेत इस प्रकार किया है।।
लक्षण बत्तीस सकल अंगि बहोत्तरि,
खान मलिक दिए मान जी । रचनायें- इनके ३६ पद प्राप्त हैं। इनके अधिकतर पदों का विषय राजीमती की विरहव्यथा है। राजुल अपने नेत्रों को मना करती है पर वे निरन्तर नेमि के पय की प्रतीक्षा करते रहते हैं, यथा
वरज्यो न माने नयन निठोर, सुमिरि गुन भये सजलघन, उमंगी चले मति फोर । चंचल चपल रहत नहीं रोके, ना मानत जु निहोर । नित उठि चाहत गिरिको मारग, जेहि विधि चंद्र चकोर । तन मन धन जोबन नहिं भावत, रजनी न भावत भोर । रत्नकीरति प्रभुवेगो मिलो तुम, मेरे मन के चोर । वरज्यो न मानत ।२
१. डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल----राजस्थान के जैनसंत पृ० १२८ २. वही, पृ० १३.
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