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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
इतने दिन तू नाहि पिछान्यो, जन्म गंवायो अजान में । अब तो अधिकारी हैं बैठे, प्रभुगुन अखय खजान में । गई दीनता सभी हमारी, प्रभु तुझ समकित दान में । प्रभु गुन अनुभव के रस आगे, आवत नहि कोउ ध्यान में । "
दिक्पट चौरासी बोल - यह कृति पं० हेमराज के सितपट चौरासी बोल का खंडन करने के लिए लिखी गई है । इसका प्रारम्भिक रद्य देखिये -
सुगुण ध्यान शुभध्यान, दानविधि परम प्रकाशक, सुघट मान प्रमान, आन जस मुगति अभ्यासक । कुमतवृम्द तमकंद, चंद परिद्वंद विनासक । कचिद मन्द मकरन्द, सन्त आनन्द विकासक यश वचन रुचिर गम्भीर निजै, दिग्पट कपट कुठार सम, जिन वर्द्धमान सोइ वंदिये, विमल ज्योति पूरण परम ।
साम्यशतक में १०५ पद्य हैं । यह श्री विजयसिंह सूरि के साम्यशतक को आधार मानकर हेमविजय के लिए लिखा गया था ।
समुद्रबहाण संवाद सं० १७०० का रचनाकाल इस प्रकार कहा गया है
१.
मुनि विबुध संवत जाणी अहो ते हर्ष प्रमाण, कवि जसविजये ये रच्यो उपदेश चह्यो सुप्रमाण ।
द्रव्यगुणपर्याय रास सं० १७११ की विजय, लाभविजय, श्रीजीतविजय और अपना गुरु बताया है
रचना है । इसमें कल्याणउनके गुरुभाई नयविजय को
श्री गुरुजीतविजय मनि धरी श्री नयविजय सुगुरु आदरी, आतम अर्थीनइ उपकार, करूं द्रव्य अनुयोग विचार ।
साधुवंदना सं० १७२१ विजयादशमी, खंभात का प्रारम्भ इस प्रकार किया गया है
प्रणम् श्री ऋषिभादि जिणेसर सुवण दिणेसर देव, सुरवर किन्नर विद्याधर जेहनी सग्रइ सेव ।
डा० प्र ेमसागरजैन - हिन्दी जैन भक्तिकाव्य पृ० २०२
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