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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास में कवित्व शक्ति, वचन चातुरी, पदलालित्य, अर्थ गौरव, रसपोषण, अलंकार निरूपण, परपक्ष खंडन, स्वपक्ष मंडन आदि जगह-जगह पर मिलता है। आपकी मरुगुर्जर रचना 'द्रव्य गुण पर्याय रास' का संस्कृत में अनुवाद हुआ और साथ ही इनकी अनेक संस्कृत रचनाओं का भाषानुवाद भी हुआ है। इनकी कुल ग्रन्थ संख्या ३०० तक है जिनमें मौलिक और टीका ग्रंथ सम्मिलित हैं। इसमें 'खण्डनखण्डखाद्य' जैसा देश-विश्रुत ग्रन्थ भी हैं जिससे इनकी पैनी प्रतिभा का प्रमाण प्राप्त होता है। इनकी सृजनशक्ति और प्रतिभा को देखते हुए श्री देसाई ने इन्हें १८वीं शती का युग पुरुष माना है और उस शताब्दी के सं० १७०१ से १७४३ तक के काल को यशोविजय युग कहा है। ऐसे धुरंधर लेखक की समग्र कृतियों का संक्षिप्त परिचय देने के लिए एक स्वतंत्र ग्रंथ अपेक्षित है। अतः यहाँ कुछ नमने के लिए उद्धरण और कुछ अति महत्त्वपूर्ण रचनाओं का उल्लेख मात्र करना ही संभव है । आप उच्चकोटि के रसिक, सहृदय कवि, रचनाकार और साधक सन्त थे। आपने 'अरसिकेषु कवित्त निवेदनं शिरसि मां लिख मां लिख' के तर्ज पर 'श्रीपालरास' में लिखा है
शास्त्र सुभाषित काव्यरस, वीणानाद विनोद, चतुरमलेजे चतुर ने तो ऊपजे प्रमोद । जे रुठो गणवंत ने तो देजो दुख पोठि, दैव न देजो एक नुसाथ गमारा गोठि । रसिया ने रसिया मले केलवता गुण गोठ,
हिये न माये रीझ रस कहेसी नावे होठ । श्रीपाल रास की रचना में इनके सहपाठी विनयविजय ने भी योगदान किया था उसकी भाषा सरल हिन्दी है, यथा
पढत पूरान वेद अरु गीता, मरख अरथ न पावै.
पुद्गल से न्यारो प्रभुमेरो, पुद्गल आपुछिपावै । हेमचन्द्राचार्य के पश्चात् समग्र जैन जगत् में यशोविजय जैसा प्रभावक, सर्व शास्त्र पारंगत आचारवान्, प्रतिभाशाली साहित्यकार शायद ही और कोई हआ होगा। इन्होंने अपने समय के महात्मा आनन्दधन की प्रशंसा की है। आनन्दघन जी मार्ग में चलते-चलते
१. जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास पृ० ६१९
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