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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
१७वीं शताब्दी का संस्कृत-प्राकृत जैन साहित्य-इस शताब्दी में अनेक प्रतिभावान जैन विद्वान्, साहित्यकार एवं लेखक हो गये हैं। विजयसेन सूरि की प्रशस्ति में लिखित 'विजयप्रशस्ति' के २१वें सर्ग में कहा गया है कि हीरविजय एवं विजयसेन सूरि के शिष्यों में अनेक व्याकरण, तर्कशास्त्र, काव्यशास्त्र के निष्णात् विद्वान् थे।
संस्कृत एवं प्राकृत में अनेक उच्चकोटि की रचनायें हुईं। सं० १६०१ में विवेककीर्ति ने हरप्रसाद कृत पिंगलसारवृत्ति की प्रति लिखी। जिनमाणिक्यसूरि के शिष्य जिनचन्द्र सूरि ने जिनवल्लभ कृत 'पोषध विधि' पर वृत्ति लिखी। अमरमाणिक्य के शिष्य साधुकीर्ति ने संघ पट्टक पर अवचूरी लिखी। इस काल में धर्मसागर उपाध्याय प्रखर तर्कवादी हुए। उन्होंने खण्डनमंडन सम्बन्धी कई साम्प्रदायिक रचनायें की। खरतरगच्छ का खण्डन करने के लिए 'औष्ट्रिकमतोत्सूत्र दीपिका' लिखी। तत्त्वतरंगिणी वृत्ति, गुव वली 'पट्टावली भी आपकी संस्कृत रचनायें हैं । विनयदेव (ब्रह्ममुनि) ने दशाश्रुतस्कन्ध पर जिनहिता नामक टीका बनाई । वानरऋषि कृत पयन्ना पर टीका, अजितदेव कृत पिंडविशुद्धि पर दीपिका इस काल की कुछ उल्लेखनीय साम्प्रदायिक रचनायें हैं। उत्तराध्ययन सूत्र पर अजितदेव सूरि ने बालावबोध लिखा। चंद्रकीर्ति सूरि ने रत्नशेखर सूरि कृत प्राकृतछन्दकोष पर संस्कृत में टीका लिखी इन्होंने सारस्वत व्याकरण पर सुबोधिनीदीपिका लिखी। हेमविजय गणि ने पार्श्वनाथ चरित्र लिखा। गुणविजय ने विजय प्रशस्ति को पूर्ण किया और टीका भी लिखी। वीरभद्र ने कन्दर्पचूणामणि की रचना की। आपने जगद्गुरुकाव्य में हीरविजय सूरि का गुणगान किया है।
महोपाध्याय समयसुन्दर ने भावशतक, अष्टलक्षी आदि प्रसिद्ध संस्कृत रचनायें की । संस्कृत में मौलिक तथा टीका रूप में इनका विशद साहित्य उपलब्ध है । गुणविनय उपाध्याय ने हनुमान कवि कृत खण्डप्रशस्ति पर सुबोधिनी टीका, कल्याणरत्न ने मेवाड़ के राजा प्रताप सिंह के राज्य में उदयसिंह कृत श्राद्धप्रतिक्रमण वृत्ति पर भाष्य की प्रति लिखी। शान्तिचन्द्रगणि ने 'कृपारस कोश' नामक प्रसिद्ध काव्य ग्रन्थ रचा जिसमें अकबर के शौर्य, औदार्य, चातुर्य आदि गुणों का वर्णन मनोरंजक ढंग से किया गया है। ज्ञानविमल, हर्षकीर्ति और १. मो० द० देसाई- जैन साहित्यनो इतिहास पृ० ५८१
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