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उपोद्घात
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कार दूसरा नहीं उत्पन्न हुआ । उसका समकालीन बैजूबावरा भी एक श्रेष्ठ संत-संगीतकार था । मालवा का राजा बाजबहादुर भी उसी समय का शौकिया सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ हो गया है । ये लोग अधिकतर निर्गुण पद, भजन आदि गाते थे । आगे चलकर संगीत में आलाप, तराना आदि का अभ्यास बढ़ा और संगीत पर भी जहाँगीर, शाहजहाँ की विलासी तथा प्रदर्शनप्रिय प्रकृति का प्रभाव प्रत्यक्ष दिखाई देने लगा ।
साहित्य - जब देश में सुशासन हो, पारस्परिक सद्भाव और सामाजिक शान्ति हो तथा अन्य कलायें विकसित हो रही हों तब साहित्य कैसे पीछे रह सकता है ? जैसा प्रारम्भ में ही कहा गया है यह शताब्दी साहित्य का स्वर्णयुग है । हिन्दी भक्तिकाव्य, विशेषतया कृष्ण भक्तिकाव्य का तत्कालीन अन्य भारतीय आर्य भाषाओं के साहित्य पर व्यापक प्रभाव पड़ा। इस काल में साहित्य की दूसरी बड़ी प्रेरणाशक्ति फारसी साहित्य का प्रचार - प्रभाव था। फैजी, बदायूनी, अबुल फजल आदि ने इस काल में कई महत्वपूर्ण फारसी की रचनायें की । संस्कृत और अन्य देशी भाषाओं में भी उच्चकोटि के कई साहित्यकारों ने विपुल साहित्य का निर्माण किया । गुजरात के कवि अक्खा ने अकबर के समय चितविचार, संवाद, शतपद, कैवल्यगीता आदि श्रेष्ठ रचनायें कीं । प्रेमानन्द के भक्ति रसपूर्ण पदों से साहित्य की श्रीवृद्धि हुई । उनके पद आज भी गुजरात में लोकप्रिय हैं । तत्कालीन समन्वयवादी दृष्टि का प्रभाव हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कवि तुलसी के 'मानस' में स्पष्ट ही देखा जा सकता है ।
मानसकार तुलसी के अलावा अकबर के समन्वयवादी शासनकाल में भक्तमाल के रचयिता नाभादास, बंगाल में चैतन्य, चंडीमंगल के रचयिता मुकुन्दराम, पंजाब के अध्यात्मवादी कवि बुल्लाशाह आदि अनेक महापुरुष हुए जिन्होंने १६वीं - १७वीं शताब्दी में धार्मिक अंतमिश्रण, जाति निरपेक्षता और समानता की भावनाओं की सुन्दर ब्यञ्जना अपनी कृतियों में की । दारा के ग्रन्थ का नाम मजमा - उल - बहरीन ( दो सागरों का मिलन ) था । यह ग्रन्थ इस्लाम और हिन्दू सांस्कृतिक धाराओं के अन्तमिश्रण का प्रतीक है । इसी अन्तर्मिश्रण का बीजवपन राजनीति में 'सुलह-ए-कुल द्वारा और धर्मनीति में दीन-ए-इलाही' द्वारा अकबर ने किया था ।
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