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इसकी अन्तिम पंक्तियां इस प्रकार हैं
जिनवर स्वामियें जो कह्यां ते व्रत साधलां चंग, भावना भावी ओ व्रत करो, जिम पामौ सौख्य अभंग | श्री सुमति कीरति चरण चित्तें धरी, ब्रह्ममेघराज कहि सार, भविण भावि तमै सुणौ जिम पामो शिवपुरी वास ।"
मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
मंगलमाणिक्य - ये आगमगच्छ की बीड़ालम्ब शाखा के विद्वान् उदयसागर के शिष्य थे । इनकी दो रचनायें काफी लोकप्रिय हैं१. विक्रमखापराचोररास और अम्बड चौपाई। इन रचनाओं के आधार पर आपकी गुरुपरंपरा इस प्रकार है, बीड़ालम्ब शाखा के मुनिरत्न > आनन्दरत्न >> ज्ञानरत्न > उदयसागर के शिष्य मंगलमाणिक्य थे ।
'विक्रमखापराचोररास' (सं० १६३८ महासुद ७ रविवार, उज्जैनी) इसकी कथा सिंहासनबत्तीसी और वैतालपच्चीसी की कथाओं से ली गई है, यथा
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विक्रम सिंहासन छइ बत्रीस, कथा बैतालणी पंचवीस, पंचदंड छत्रनी कथा, विक्रम चरित्र लीलावइ कथा प्रवेस परकाय नी बात सीलमती खापरनी ख्याति, विक्रम प्रबंध अछइ जे घणा, कहइता पार नहीं गुणा । इति ऊमाहुं अंगिसुं धरी, गुरुकवि संतचरण अणुसरी, गद्यकथा रास उद्धार, रचिउप्रबन्ध वीररस सार ।
अर्थात् यह कथा राजा विक्रमादित्य सम्बन्धी विभिन्न गद्य कथा ग्रन्थों से लेकर वीर रस प्रधान प्रबन्ध काव्य के रूप में रची गई है। रचना काल इस प्रकार बताया गया है
संवत सोल आठनी त्रीस, माघ शुदि सातमि रविदीस, आश्लेषा शुभयोग रही उजेणीइं कथा ओ कही ।
गुरुपरंपरा
विडालंबगच्छ आगम्य आणंद रत्न सूरि अनुपम्म, तास सीष्य मंगलमाणिवय वाचकइ वरिउकथा अधिवय ।
१. जैन गुर्जर कविओ, भाग १ पृ० २४७-४५२ ( प्रथम संस्करण ) - तथा भाग २ पृ० १६९-१७४ (द्वितीय संस्करण )
२. वही,
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