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________________ मुक्तिसागर गुरुपरंपरा-- श्री विद्याशील सीस सुयरि सोहामणि पंडित पुहुवि प्रवीण, विवेकमेरु गणि संयमगुणकरि विचरता जी हूंतस्य चलणे लीण । त्रीज जिनवर संभवनाथ पसाउलि जी पुनि जंपइ मुनिशील, जे नरनारी भणस्यइ गुणस्यइ सांभलइजी लषि परि पामइलील।' कवि की भाषा अटपटी और छंद यत्रतत्र टूटे हुए हैं, काव्यत्व सामान्य कोटि का है। __ मुक्तिसागर--आप तपागच्छ के आचार्य लब्धिसागर के शिष्य थे। इन्होंने सं० १६८६ में सूरिपद प्राप्त किया और नाम राजसागरसूरि पड़ा। इनकी रचना 'केवली स्वरूप स्तव (६८ कड़ी, सं० १६८६ से पूर्व) प्रकाशित है। संग्रह का नाम है, जैन ज्ञान स्तोत्र अने केवली स्वरूप स्तवन' आदि-सरस वचन दिउ सरसती, वरसति वचन विलास; कविजन केरी माय तु आपे बुद्धि प्रकाश । गुरुपरम्परा-- श्री हीरविजय सूरीसरु अभिनव घनो अणगार, कलिकालइ श्रुति केवली गोयम सम अवतार । इसके बाद विजयसेन और विजयदेव का उल्लेख किया गया है। धर्म के सम्बन्ध में कवि लिखता है-- धर्म-धर्म सहु को कहइ, धर्म न जाणइ वत्त, जिन शासन सुधुं अछइ जिहां सूधात्रिण तत्त । अन्त-कलश - श्री जैन वाणी शुद्ध जाणी संथुण्यो खेमंकरो, सिद्धान्त युगति विविध भगति केवली तीर्थङ्करो। उवझाय श्री गुरुल ब्धिसागर नेमिसागर मुनिवरा, आदेश पामी सीसनामी मुक्तिसागर जयकरा । १. जैन गुर्जर कविओ भाग १ पृ० ३९०, भाग ३ पृ० ८७१ (प्रथम संस्करण) ___ भाग २ पृ० ३०५-०६ (द्वितीय संस्करण) २. वही, भाग ३ खंड २ पृ० १५०५-०६ (प्रथम संस्करण) भाग ३ पृ० २६७ (द्वितीय संस्करण) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002091
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages704
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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