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मुनिकीर्ति
३५९ सरसति सामणी प्रणमीयइ, गोतम स्वामिना पाय रे, अंजनासंदरी नी कथा, नारिनर सुणहं मनलाइ रे । सील भवियण भलइ पालीयइ, पाइयइ सुजसु संसारि रे, सब कुसंगति वली टालियइ, जाइयइ भवसमुद्र पारि रे ।
सील भवियण भलइ पालियइ । पाइयइ सुजसु संसारि रे । अंत-धन धन अंजनासुंदरी, सुमिरो चित्ति त्रिकाल रे,
सील भलो तिणे पालीयो, जसु गावइ मुनिमाल रे ।'
माहावजो-कड़वागच्छ के शाह रत्नपाल के शिष्य थे। इन्होंने सं. १६५० के लगभग ३२९ कड़ी की रचना 'नर्मदासंदरीरास' लिखा। कड़वाशाह ने सं० १५६२ में कड़वापंथ चलाया था। कड़वा के पश्चात् खीमशा, वीरशा, जीवराज, तेजपाल और रत्नपाल हुए थे। रास की प्रारम्भिक पंक्तियाँ ये हैं
प्रथम आदीश्वर प्रणमतां ऊपन्नउ आनंद, नामिरायां कुलि चंदलउ, मरुदेव्यानु नंद । गोयम गणधर प्रमुख थी, सकल साधु सुप्रभाव,
सरसति देवी पयनमी, पामी तासु पसाय । अंत-रास मनोहर नर्मदा केरउ सयला सुखदातार रे,
कीरति पण ओ दिओ वली रुडी, धरि गुण मां सरदार रे। वीर जिणेसर शासन सुन्दर, सती नर्मदा ते जाणो रे,
दास वली श्री वर्द्धमाननु व्रतधारक मनि आणो रे। काव्यत्व साधारण कोटि का है।
मुनिकोति-आप खरतरगच्छ के हर्षचंद्र के प्रशिष्य एवं हर्षप्रमोद के शिष्य हैं। इन्होंने सं० १६८२ विजयादशमी, गुरुवार को सांगानेर में 'पुण्यसार रास' लिखा। गुरुपरंपरा में खरतरगच्छ के
१. जैन गुर्जर कवियो भाग १ पृ० ४६३-६४, भाग ३ पृ० २४-२९ (प्रथम
संस्करण) और भाग ३ पृ० ९३८ (प्रथम संस्करण), भाग ३ पृ० ७९
(द्वितीय ग्रंस्करण) २. वही, भाग ३ पृ० ७९९-८०१ ( प्रथम संस्करण ) तथा भाग २
पृ० २६६.२६८ (द्वितीय संस्करण)
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