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मरु- गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास संग्रह' में प्रकाशित है । राजुलनेमि की कथा के समान स्थूलिभद्र कोशा की कथा भी जैन साहित्य में बहुत लोकप्रिय है । प्राचीन फागु संग्रह में दो अन्य फागु भी स्थूलिभद्र एवं कोशा की कथा पर आधारित हैं जिनसे इसकी लोकप्रियता प्रमाणित होती है । स्थूलभद्र कोशा वेश्या के यहाँ १२ वर्ष भोगविलास में लिप्त रहे । ये नंदराजा के मंत्री शकडाल के पुत्र थे । नन्द ने शकडाल से नाराज होकर उन्हें मरवा दिया । स्थूलिभद्र को राजप्रपंच से वैराग्य हो गया । स्थूलिभद्र ने संभूतिविजय से दीक्षा ली और दृढ़संयम का अभ्यास किया । अन्त में गुरु के आदेश से वर्षावास में कोशा के यहाँ पुनः गये । उस समय का वर्णन करता हुआ कवि लिखता है.
घनकारी घटा अम्बर छायु बरसे रस घन गाजि रे, सांझ समझ कोशा वेश्या सवि सणगार ते साजि रे । कुच ऊपरि नवसर वण्यु मोतीहार सोहावइ रे,
परवत तिजन ऊतरती गंग नदी जल आवइ रे । नाभि गंभीर सोभावणी जानु कि मदन सरोवर रे,
कामीजन तृसना मिटि देषित रूप मनोहर रे । वह पूर्ण शृङ्गार करके स्थूलिभद्र को रिझाने का यत्न करती है पर व्यर्थ हो जाता है, यथा
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एक अङ्ग कइ नेह कइ कछू न होवइ रंगो रे,
दीवा के चिति मोहे नहीं जलि जलि मरो पतंगो रे ।
इसी तरह एकपक्षीय प्रेम का संताप कई छंदों में वर्णित है । वह हावभाव नृत्य गीत करके थक गई पर स्थूलिभद्र संयम से नहीं डिगे । अन्त में कामविजय के कारण उनकी स्तुति करता हुआ कवि कहता है
कान्ह पड्यु वसि काम कइ, काम विगोयु ईसो रे, पारबती आगलि नाच्यु भरत कला निसिदीसो रे । काम सुभट जिणि जीतिउ ते धनधन्न वषाणु रे, ये नर काम न वस कीऊ धूलिभद्र सो जाणो रे । '
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वहाँ चौमासा पूरा करके थूलिभद्द गुरु के पास लौटे और श्रुतिज्ञानी बने । कवि कहता है कि आश्चर्य तो यह है कि जिस काम पर
१. डा० भोगीलाल सांडेसरा - ऐतिहासिक फाग संग्रह, पृ० १४१-१४२
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