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मरु गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास इस रचना की कथा सिंहासन बत्तीसी से ली गई है, यथासिंहासन बत्तीस की कथा सरस अवदात,
राजा भोजु न होत जउ, को तसु जानत बात। इसका आदि देखियेजासु अलक्ष रूप जगि, मनि ध्यावउ भगवंत,
राजा भोज कथा कहउं सुनहु सवई तुम्हसंत । कुछ काव्य स्थल देखिये
प्रीति नहीं जोबन बिना, धन बिनु नाही घाट,
माल धर्म बिनु सुख नहीं, गुरुबिनुनाही बाट ।' विक्रम और भोज की कथाओं पर आधारित इनके कई कथात्मक काव्य ग्रन्थ हैं। इन पर एक अलग लेख श्री मो० द० देसाई ने जैन हेराल्ड सन् १९१५ में लिखा है। जैन परम्परा का इतिहास भाग २ पृ० ५८९ पर लिखा है कि सं० १६१३ में मालदेव वर्तमान थे। उनके पाट पर सं० १६१९-४४ तक शीलदेव विराजमान थे। मालदेव का समय इसके आसपास ही होगा। वीरांगद चौपइ (पुण्य के विषय में लिखी गई है) ७०४ कड़ी की यह रचना सं० १६१२ ज्येष्ठ शु० ९ को पूर्ण हुई । इसका आदि
संतिजिनेसर पय नमी समरूं सरसति माइ रे, करूं नवी हूँ चउपइ निय गुरु नइ सुयसाइ रे। पुण्य करउ तुम्ह भवियणउ सहु जेम भवपारो रे,
मणयजनम पामी करी पुण्य पदारथ सारो रे । अन्त-श्री बड़गच्छ गच्छहि पुण्यप्रभ सुरीस,
भावदेव सुरीसर भाग्यवंत तसु सीस । चउपइ प्रबन्ध इसउ ऊलट धरि अंग,
___ श्री मालदेव तसुसीस कहइ मनरंगि । पुरंदर कुमार चौपइ ( सं० १६५२ से पूर्व ) में दोहा, सोरठा के साथ ढालों का भी प्रयोग हुआ है । आदिवरदायक सुरदेवता गुरुप्रसाद आधार,
* कुमर पुरंदर गायस्युं शीलवंत सुविचार । १. जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० ५६-६० (द्वितीय संस्करण)
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