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मरु - गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
रोदन करे विलाप एकली जंगल जेहवे,
ब्रजजंघ नृप एहपुन्य थी आव्योतेहवें । वहाँ सीता के दो पुत्र लव और कुश उत्पन्न हुए। बड़े होकर जब यह कथा उन्होंने सुनी
'मणिनी करि धरि लाग्यो तेहथि तुम्ह दो सूत थया' तो बड़े क्रुद्ध हुए और राम से युद्ध किया । नारद की मध्यस्थता से शांति स्थापित हुई । लवकुश अयोध्या लौटे, पर सीता साध्वी बन गई और सत्य - भूषण केवली की आर्यिका बनकर उन्होंने घोर तप किया और स्वर्ग गई। इसकी भाषा राजस्थानी मिश्रित हिन्दी है । यह डिंगलशैली के समीप है, यथा
रण निसाण बजाय सकल सैन्या तबमेली, चढ्यो दिवाजे करि कटककरिदशदिस भेजी । हस्ति तुरंग मसूर भार करि शेषज शंको, खड्गादिक हथियार देखि रवि शशियण कंप्यो । '
महेश्वरसूरि शिष्य - आपका नाम अज्ञात है किन्तु यह निश्चित
है कि आप देवानन्दगच्छ के महेश्वर सूरि के शिष्य थे । आपने सं० १६३० आषाढ़ शुक्ल ३ गुरुवार को अपनी २५५ कड़ी की रचना 'चंपकसेन रास' पूर्ण की। इसका प्रारम्भ इस प्रकार हुआ है-गणपति गुणनिधि बीनबुँ, सरसति करो पसाय,
तुझ पसाईं गायस्युं प्रणमी गोयम पाय । नामिनवनिधि पामीइ, लब्धि तणो भण्डार,
गौतम गणधर समरता हुई जय जयकार |
इसमें दान की महिमा बताई गई है । यथा
दानि महिमा त्रिभुवन होय, भाव सहित देयो सहूकोय, दानि सहूं को द्याइ आसीस, दानि जीवो कोडि वरीस ।
रचनाकाल
संवत सोलत्रीसा वर्ष सही आषाढ़ शुदि श्रीज दिन लही, गुरुवार ते दिनसार पूरो रास तणो विस्तार ।
१. डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल - राजस्थान के जैन संत पृ० २०२
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