________________
महीचंद भट्टारक प्रस्तुत किया जा रहा है ।' आदि
सरसति सामिणि विनवू, सारउ वंछित काज ललना,
नेमि तणा गुण वर्णवू, वादी समा जिनराज ललना। अंत-सहस बरस पूरउ करी हो, पहुता मुगति मझारि,
ओ परबंध रच्यउ रली हो, श्री नागउर दसार । वाचक पदवी गुणनिल उ, सुखनिधान गुरु सीस, महिमामेरु मुनिवर भणइ, संघा सदा सुजगीस।
भट्टारक महीचंद -इस नाम के तीन भट्टारकों में प्रथम महीचंद भट्टारक विशाल कीर्ति के शिष्य थे। प्रस्तुत महीचंद भट्टारक वादिचंद्र के शिष्य है। तीसरे महीचंद भट्टारक सहस्रकीर्ति के शिष्य हो गये हैं। वादिचंद्र शिष्य भ० महीचंद्र ने 'नेमिनाथ सवशरणविधि' आदिनाथ विनति, आदित्य व्रतकथा आदि रचनायें की हैं। लवांकुश छप्पय भी संभवतः आपकी ही रचना है । डा० हरीश शुक्ल का कथन है कि 'आदिनाथ विनति' इनकी लघु रचनाओं का संग्रह है। आदित्यव्रत कथा २२ पद्यों की लघु रचना है। लवाकुंश छप्पय में कुल ७० पद्य हैं। छप्पय में रचनाकार के स्थान पर महीचंद का नाम आया है अतः यह रचना इन्हीं महीचंद की होनी चाहिये। अन्त में सम्बन्धित पंक्तियाँ इस प्रकार हैंके अक्षौहनि कटक मेलि रघुपति रणचल्यो,
रावण रणभूमीय पड्यो सायर जल छल्यो। जयनिशान बजाय जानकी निजघर आंणी,
दशरथसुत कीरति भुवनत्रय मांहि बखानी । राम लक्ष्मण एम जीति ने नयरी अयोध्या आवया,
महीचंद कहे फल पुन्य थिएडा बहुपरे बामया । राम ने सीता की कलंककथा चरों से श्रवण कर उन्हें वन भेज दिया जहां वे एकाकी विलाप कर रही थी।
१. श्री अगरचन्द नाहटा-परम्परा पृ० ८५ २. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० १८१ (द्वितीय सं०) भाग ३ पृ० ९६५
(प्रथम संस्करण) ३. डा. कस्तूर चन्द कासलीवाल-- राजस्थान के जैनसंत पृ० १९८-२०२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org