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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
कवि ने रचना के अन्त में स्वयं लिखा हैश्री खरतरगच्छ छाजइ श्री जिनसिंह सूरि राइज,
___ संवत सोलह सत्तरि, दीवाली दिनि गुणभरि । ओ सम्बन्ध रसाल सुणतां लीलविलास,
श्री शिवनिधान गुरु सोस कहइ मुनि मान जगीस।' मेतार्य ऋषि चौपइ सं० १६७० । आदिविदुरलोक सुखदायिनी, सरसति समरि उल्हासि,
मेतारिज रिषचरित सुभ कहिसु ग्रंथ प्रकासि । अन्त --संबन्ध मे सरस कहिउ, शिवनिधान गणि सींस,
मुनि वदति मान सुप्रेम सुं सुखकारणि हो धरिमनहजगीस । रचनाकाल
संवत सोलह सत्तरइ पुहकरण नयरि मझारि, सम्बन्ध अह कहिउ सही, अति सुन्दर हो निजमति अनुसारि ।
क्षुल्लक कुमार चौपइ-(साधु संबंध, गा० १४९ सं० १६७० के आसपास, पुष्करिणी) आदिश्री सद्गुरु पद जुग नमी, सरसति ध्यान धरेसु;
क्षुल्लक कुमार सुसाधुना, गुण संग्रहण करेषु । गुणग्रहतां गुण पाइयइ, गुणि रंजइ गुणजाण,
कमलि भमर आवइ चतुर, दादुरग्रहइन अजाण । गुणिजन संगत थइ निपुण, पावइ उत्तम ठाम,
कुसुमसंग डोरो कंटक केतकि सिरि अभिराम । पहिलउ धर्म न संग्रहिउ, मात कहिइ गुरुवयण,
नटुइवयणे जागीयइ, विकसे अंतरनयण । २ इसमें लेखक ने अपना नाम मानसिंह दिया है, यथासंबंध सरस कह्यउ शिवनिधान गुरु सीस,
मानसिंह मुनि इम कहइ श्री पुष्करणी जगीस।
१. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० ६९४-९८ तथा पृ० १५०७-०८ (प्रथम
संस्करण) २. वही, भाग ३ पृ० १६०-१६४ (द्वितीय संस्करण)
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