________________
_ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास दिया है। रचनाकाल -
अश्वती पास पसाइ, पूरी मई तीस ढाल,
संवत सोल गुणवीसइ कीनु, आसुज सुदि भृगुवार । इसकी प्रारम्भिक पंक्तियां इस प्रकार हैं
सरसति सरस सुकवि सवित, उक्ति अनोपम आनि, मोही महा मही मोहनी, देवी देवद दानि ।'
मल्लिदेव-श्री मोहनदास दलीचन्द देसाई ने आपकी एक रचना 'कर्मविपाकरास' (सं० १६४८) का उल्लेख जैन गुर्जर कविओ भाग १ पृ० २९० पर किया है। अन्य कोई विवरण नहीं दिया है और न रचना से उद्धरण ही दिया है। द्वितीय संस्करण के सम्पादक श्री जयन्त कोठारी ने शङ्का की है कि यह रचना संस्कृत भाषा की हो सकती है। अतः इसके सम्बन्ध में अधिक छानबीन नहीं की गई है। इसकी प्रतिलिपि माणेक भंडार में उपलब्ध है।
महानन्दगणि-तपागच्छीय हीरविजवसूरि की परम्परा में विद्याहर्ष आपके गुरु थे। शायद गुजराती थे। इन्होंने 'अंजनासुन्दरी रास' की रचना सं० १६६१ में रायपुर में की। इसमें हीरविजयसूरि और विजयसेन सूरि की सम्राट अकबर से मुलाकात का भी हवाला दिया गया है। अन्जना हनुमान की माँ हैं। उन्हें जिनभक्त के रूप में चित्रित किया गया है। अन्जना की सास ने उन्हें गर्भावस्था में घर से निकाल दिया। उस करुण दृश्य का मार्मिक अङ्कन कवि ने इस रचना में यथास्थान किया है। बीच-बीच में प्राकृतिक दृश्यों का चित्रण भी स्वाभाविक ढंग से हुआ है। जैसे ऋतु वसंत में अन्जना अपनी सखियों के साथ क्रीड़ा करती हुई इस प्रकार दिखाई देती है
फूलिय बनह बनमालीय वालीय करई रे खोल, करि कुंकुम रंगरोलिय घोलीय झक्कमझोल । खेलइ खेल खंडोकली मोमली सहीपर साथ, अंजनासुन्दरी सुन्दरी मंजरी ग्रही करी हाथ ।
१. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० ७००-७०१ (प्रथम संस्करण) भाग २
पृ० ११४ (द्वितीय संस्करण) २. डा० प्रेमसागर जैन-हिन्दी जैन भक्ति काव्य पृ० १४०-४२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org