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मतिसागर
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इसमें शालिभद्र के माध्यम से दान का माहात्म्य बताया गया है । रचना की पंक्तियाँ इस प्रकार हैं
साधुचरित कहिवा मन तरस्ये तिण अ उद्यम भाष्यो हरषे जी, सोलह सत अठहत्तर वरस्ये आसू वदि छठि दिवस्ये जी । शालिभद्र धन्नोरिस रास ।"
इस प्रकार चतुष्पदिका और गुण धर्मरास इनकी दो रचनायें निर्विवाद प्रतीत होती हैं ।
मतिसार II - - संभवत: जैनेतर कवि थे । इन्होंने सं० १६०५ चैत्र शुक्ल ११ रविवार को 'कर्पूरमंजरीरास' की रचना की । यह कृति 'फार्बुस गुजराती सभा के त्रैमासिक पत्र के मार्च-अप्रैल-जून सनु १९४१ के अङ्क में छपी है ।
इसका प्रारम्भ इन पंक्तियों से हुआ है
प्रथम गणपति वर्णवउं गवरि पुत्र उदार,
लक्षलाभजेपुरवइ देव सविहुं प्रतिहार ।
काशमीर मुख मंडनी, सरसति समरुं माय,
तेह तणइ सुपसाउलई बुद्धिपामइ कवि राय | ओ सविहूँ आपसलही, मांडसु कथारसाल,
इन्द्रमाला जे पूतली कपूरमंजरी रसाल ।
इसकी अन्तिम पंक्तियाँ निम्नलिखित हैंकपूरमंजरी कथा अभिनवी, संवत सोल चैत्र शुदि इग्यारसि रविवार, बोलइ कवि मतिसागर I - - आगमगच्छीय गुणमेरु के शिष्य थे । इन्होंने सं० १६७५ पौष मास में 'संग्रहिणी ढाल बंध' की रचना की थी । इसमें कवि ने अपना नाम इस युक्ति से बताया है
पंचोत्तरइ कवी |
पंडित मतिसार | 2
पहिलु अक्षर मन तणु, बीजओ यति नु जाणि, मनसा त्रीजु आणयो, चुथइ वइराग आणि । वइरागर नु पंचम अहजि कविता नाम, श्री जीराउलि मंडणू करूं तेहनइ प्रणाम ।
(प्रथम संस्करण ) भाग
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१. जैन गुर्जर कविओ भाग १ पृ० ५०१-५०३ ( प्रथम संस्करण )
२. जैन गुर्जर कवियो भाग ३५० - ६५७ और भाग ३ खंड २ पृ० २१२९
पृ० २४ (द्वितीय संस्करण)
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