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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास __ "मतिसारइ मइ कीऊ प्रबन्ध' यहाँ मति के अनुसार के बजाय मतिसार को कर्ता के अर्थ में लिया गया लगता है, इस प्रकार निर्धान्त रूप से इनकी दो ही रचनायें समझ में आती हैं--गुण धर्म रास और शालिभद्र चतुष्पदिका। चंपकसेन रास में कर्ता के स्थान पर स्पष्ट रूप से मतिसागर का नाम आया है।
कवि मतिसागर इम भणइ घरि-घरि मंगल ऋद्धि । २
इस प्रकार चंपकसेन रास मतिसार की कृति नहीं है किन्तु शालिभद्र चतुष्पदिका को संपादक श्री कोठारी क्यों मतिसार की कृति नहीं मानते यह समझ में नहीं आया । वे इसे जिनराज सूरि की रचना मानते हैं, पर उन्होंने कोई स्पष्ट प्रमाण अपने मत संपादन के पक्ष में नहीं दिया है। रचना में कर्ता के स्थान पर मतिसार का नाम मिलता है । यथा--
श्रीजिनसिंह सूरि सीस मतिसारे भवियणनि उपगारे जी, श्रीजिनराज बचन अनुसारइ चरित कह्यो सुविचारइजी ।
यहाँ स्पष्ट बताया गया है कि जिनसिंह सूरि के शिष्य मतिसार ने जिनराज के वचनानुसार यह चरित लिखा। ये जिनराजसूरि भी हो सकते हैं या जिनभगवान भी हो सकते हैं जिनके वचनानुसार कवियों ने रचनायें की हैं। इस अर्थ में जिनराज का प्रयोग अन्य कई कवियों ने किया है। यदि जिनराज का अर्थ जिनराज सूरि किया जाय तो भी यह अर्थ नहीं बैठता कि जिनराजसूरि इसके कर्ता हैं, अतः मैं चतुष्पदिका को मतिसार की रचना मानकर उसकी कुछ पंक्तियाँ नमूने के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँआदि
सासणनायक समरीयइ वर्द्धमानजिनचंद, अलिय विघन दूरइ हरइ आपइ परमाणंद । दानशील तप भावना शिवपुर मारगच्यार, सरिषा छइ तो पिण इहाँ दान तणउ अधिकार। शालिभद्र सुखसंपदा पामे दान साय,
तासुचरित वषाणता पातिक दूरि पलाय । १. जैन गुर्जर कविओ, भाग ३ पृ० ३३५-३३६ (द्वितीय संस्करण) २. वही, भाग २ पृ० २५-२६ (द्वितीय संस्करण)
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