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मतिसार
गद्य में आपने लखमसी कृत प्रश्नोत्तर रूप संवाद सं० १६९१ भाद्र वदी ६ बुध जैसलमेर में लिखी है। इसमें २७ प्रश्नों पर संवाद है । आपकी भाषा सरल, शुद्ध और गतिशील है, यथा-- पुण्य तणउ फल जेह न मानइ, मोह मलिन मति आप गुमानइ, ऊँचनीचगति मइ बहु थानइ, दुख लहइस्यइ नर तेह अगानइ । पाप तणी मति दुरइ करिसइ, संग कुसंग तिनऊ परिहरसइ । पुण्य तणउ फल सुखि मनि धरसइ, मतिसागर जिम ते सुख वरिसइ ।
ये पंक्तियाँ धर्म बुद्धि मंत्रीश्वर रास से उद्धृत हैं। इनमें पाप पुण्य का सुन्दर निरूपण सरस भाषा शैली में किया गया है। __ मतिचंद--आप गुणचन्द गणि के शिष्य थे। आप मुख्यरूप से गद्यकार थे। आपका रचनाकाल १७वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध है। आपकी दो गद्य कृतियाँ उपलब्ध हैं--
१. कर्मग्रन्थबंधस्वामित्व वालावबोध और २. षडशीति (चोथो कर्म ग्रन्थ) बालावबोध ।'
मतिसार I--आप खरतरगच्छीय जिनसिंह सूरि के शिष्य थे। श्री मो० द० देसाई ने इनकी चार रचनायें गिनाई थीं--शालिभद्रमुनि चतुष्पदिका सं० १६७८, चंपकसेनरास सं० १६७५, गुणधर्म रास सं० १६९९ और चंदराजा चौपइ । जैन गुर्जर कविओ के द्वितीय संस्करण के संपादक ने इनकी दो ही रचनायें बताई हैं--गुणधर्मरास और चन्दराजा चौपइ । यहाँ शालिभद्रमुनि चतुष्पदिका का कर्ता जिनसिंह के शिष्य जिनराज को बताया गया है । चंपकसेनरास वस्तुतः मतिसार की कृति नहीं है इसका नाम द्वि० सं० के संपादक ने रचना सूची में ही नहीं गिनाया है। चंदराजा चौपइ को संपादक ने मतिसार की कृति बताया है किन्तु उसके सम्बन्ध में यह शंका व्यक्त की है कि यह रचना संभवतः करमचन्द की है और निम्नलिखित पंक्ति के कारण शायद भ्रमवश श्री देसाई ने इसे मतिसार की रचना मान ली हो :--
१. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० १६०७ (प्रथम संस्करण) तथा भाग २
पृ० २७० (द्वितीय संस्करण) २. वही, भाग १ पृ० ५०१-५०३ (प्रथम संस्करण)
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