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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ज्ञाननंदि गुरुराज विनवइ रे,
भुवनकीरति गणि अ भणइ रे । साहज्यइ कवि लावण्यकीरति गणि तणइ रे,
भणीयउ मे संबंध सुन्दर रे, ढाल त्रियासी इहां किणउ रे । रचना की भाषा के सम्बन्ध में कवि कहता हैगुजराती तिम सिंधू मारु पूरवी रे,
भाषायइ सुप्रसिद्ध सुणतां रे, प्रकटइ मति अतिनवीरे । जंबूस्वामी चौपइ-(४ अधिकार ५५ ढाल, सं० १६९१ श्रावण शुक्ल ११, १३६९ कड़ी) का रचनाकाल भिन्न-भिन्न प्रतियों के दो पाठांतरों में दो प्रकार से मिलता है । दूसरे पाठान्तर के अनुसार यह रचना सं० १७०५ में हुई है।'
एक प्रति में पाठ है । संवत सोल सह हे 'अकाणुये' और दूसरे प्रति के पाठान्तर में—संवत सतर से पंचोत्तरे, श्रावणसुदि इग्यारसि वासरे दिया गया है ।
गजसुकमाल चौपाइ-(सं० १७०३ माघ, वद ११ गुरु, खंभात) का कलश देखियेश्री वीर जिनवर पाटपाटे गच्छ खरतर से घणी,
श्री जिनरंग सूरींदराजे षेमसाखें दिनमणी, श्री ग्याननंद गणीद वाचक चरणसेवक तास अ,
श्री भुवनकीरति कहे गजसुकुमालमुनिनो रासमे अंजनासुन्दरीरास - (३ अधिकार ४३ ढाल, ७०३ कड़ी सं० १७०६ माघ शुक्ल १२ गुरुवार, उदयपुर) आदि
__ करता सगली साधना, सत्य गुरुकहवाय;
हूँ पिण इहाँ किणि ते भणी, प्रथम नमुगुरुपाय ।। श्री जिनरंगसूरि के आदेश से इन्होंने उदयपुर में चौमासा किया, उस समय वहाँ का शासक राणा जगतसिंह था, यथा
तसु आदेसई संवत सतर छडोतरइ रे उदयापुर चौमास, जगतसिंघ राणो गाजइ, जिहां रे हिंदूपति तसवास ।
१. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० १२७-१२ २. वही, पृ० १३२ (द्वितीय संस्करण)
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