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________________ ३२७ भावशेखर उवझाय विमलहर्ष सोहइ सुकृत भूरुह जलधरो, उवझाय श्री मुनि विमल सेवक भाव विजय जयकरो । 'अंतरीक्षपार्श्वनाथछंद' (५१ कड़ी) की प्रारम्भिक पंक्तियाँ देखिये सरसति मात मया करी, आपो अविचल वाणि, पुरिसादाणी पास जिण, गाऊं गुणगणि खाणि । इसके भी अंत में वही गुरुपरंपरा बताई गई है। नारंग पुराहव पार्श्वस्तव (२३ कड़ी) सं० १७०७ का रचनाकाल इस प्रकार बताया गया है संवतसत्तर छडोत्तरा, वरषिजेठवदित्रीजइ बहुहरख इ, बहुप्रतिमा वन्द संघाति, प्रभु थाप्या अछवथाति । आप अच्छे संत और उत्तम कवि थे। आपकी रचनाओं में प्रवाह है क्योंकि छंद प्रायः खंडित नहीं है । मात्रा, तुक आदि का ध्यान रखा गया है। इस प्रकार आप १७वीं शताब्दी के अन्तिम और १८वीं सदी के प्रथम चरण के एक सशक्त कवि सिद्ध होते हैं। भाषा में प्रसाद गुण के साथ प्रवाह भी है। भावशेखर-आंचलगच्छीय कल्याणसागरसूरि के शिष्य विवेकशेखर आपके गुरु थे, आपने सं० १६८३ ज्येष्ठ शुक्ल १४ को ३ खंडों ३१ ढालों में ७४७ कड़ी की रचना रूपसेन ऋषिरास' प्रस्तुत की। इसका आदि देखिये-- स्वस्ति श्रीशांतीसरु, प्रणमु एकचित्त भावि, विधन निवारण सुखकरु, लीलालवधि सुन्दावि । मंगलाचरण के अन्तर्गत शारदा, गौतम गणधर आदि की वंदना है। इसमें रूपसेन की कथा के माध्यम से पुण्य का माहात्म्य समझाया गया है पुण्ये तेजस झलहलइ, प्राची दिसिजिमि भाण, पुण्य कथा कहु हरष धरी, रूपसेन गुण जाण । जिम भाषिउ पुरव मुनिइ तिम दाखु हूँ रेह, साधुकथा कहिंता थकां होवि लाभ सुनेह । नवनगरि श्री शांति जिणेसर, तस सानिधि थउ अह, बंधव विजयशेखर नी साहिज कहेउ अधिकार सुनेह रे । X Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002091
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages704
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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