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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
शब्द-प्रयोग से यह स्पष्ट नहीं होता कि यह कर्ता का नाम ही है। सम्बन्धित पंक्तियाँ देखिये
भाव सहित वरगत मनि धरउ, सिद्धि रमणि लीला जम वरउं ।
यहाँ 'भाव' शब्द किसी व्यक्ति के बजाय भावना के अर्थ में ही प्रयुक्त प्रतीत होता है, किन्तु श्लेष के आधार पर यदि दोनों अर्थ लिए भी जाय तो भी कवि ने अपने या अपनी कृति के सम्बन्ध में कोई अन्य अन्तःसाक्ष्य नहीं दिया है। इसकी रचना तिथि तथा स्थान का भी कवि ने इङ्गित नहीं किया है। यह ७८ कड़ी की रचना है। इसका प्रथम छन्द यह है
पाप पूण्य नां फल सांभलो, क्रोध मान माया परिहरऊ,
इदी नोंद्री सवि वसि करउ, धर्म भणी सहुइ अणुसरऊ । इसकी अंतिम पंक्तियाँ इस प्रकार हैंओ चउपइं मनरंजिइ भणउ, मोटा पाप सवे परिहर उ, भाव सहित बरगत मनि धरउ, सिद्धि रमणि लीला जम वरउ ।'
भावरत्न -तपागच्छीय हेमविमलसूरि > अनंतहंस > हीरहंस > विनयभूषण > रत्नभूषण के आप शिष्य थे । सं० १६६० द्वितीय अषाढ़ कृष्ण ७, रविवार को ५०६ कड़ी की रचना 'कनकवेष्ठिरास' आपने लिखी । इसका रचनाकाल कवि ने इन पंक्तियों में बताया है
संवत रस ने चंद्र युग्म त्रीसे रे मेली लाहो संवत्सरे रे, आसो द्वितीय (बदि तीज) चंद सातमि रे शुभ योगे रविवारे रे । शय राष्ट्र मझारि सांभर नयरे उपकंठे सोहामणी रे, मथुरा ने अणुसारे पुहुरि नामे रे त्रिसी परिणामे बहुगणी रे। तसमंडन श्री पास पय प्रणमी रे, रास रच्यो रलीयामणी रे, पहुते सघली आस भावरत्न रे कहे भवियाँ भावे सुणी रे ।
ऊपर लिखी गई गुरुपरंपरा का भी कवि ने उल्लेख किया है और अपने को रत्नभूषण पंडित का दक्ष शिष्य कहा है, यथा
श्री रत्नभूषण पंडित दक्ष सेवकरे भावरत्न भावे भणे रे । १. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० १५०७ (प्रथम संस्करण) और भाग ३
पृ० २८१ (द्वितीय संस्करण) २. वही, भाग १ पृ० २४५ और भाग ३ पृ० ७४०-४२ (प्रथम संस्करण) Jain Education International
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