SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 337
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१८ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास पेखहु हो तुम पेखहु भाई, जोगी जगमहि सोई, घट घट अंतरि बसइ चिदानंदु, अलख न लखिये कोई । भव वन भूलि रह्यो भ्रमरावलुसिवपुर सुध विसराई, परम अतीन्द्रिय सिवसुख तजिकरि, विषयन्मि रहिउ लुभाइ ।' चतुर बनजारा -यह ३५ पद्यों का रूपक काव्य है जिसमें कवि ने बताया है कि वह जीव चतुर बनजारे के समान है जो संसार की असारता का अनुभव करके इससे मुक्त होने का प्रयत्न करता है। "वीरजिनिन्द गीत' में भगवान महावीर की स्तुति से सम्बन्धित पद हैं 'राजमतीनेमीसुर ढमाल' में नेमि-राजुल की लोकप्रिय कथा से सम्बन्धित कुल २१ पद्य हैं। टंडाणारास-एक आध्यात्मिक रचना है, कवि कहता है - धर्म सूकल धरि ध्यान अनुपम, लहि निज केवल नाणा बे, जंपति दासभगवती पावहुँ, सासउ सहु निव्वाणा बे । अर्थात् शुक्ल ध्यान धारण कर जीव को निर्वाण प्राप्त करना चाहिये। अनेकार्थनाममाला--कोश ग्रन्थ है। इसके तीन अध्यायों में क्रमशः ६३, १२२ और ७१ दोहे हैं। अनेकार्थ शब्दों का पद्यबद्धकोश बनारसीदास की नाममाला के १७ वर्ष पश्चात् लिखी गई उत्तम कोशकृति है। यह रचना सं० १६८७ आषाढ़ कृष्ण तृतीया गुरुवार को देहली में की गई। मृगांकलेखाचरित—यह सं० १७०० अगहन शुदी पंचमी सोमवार को हिसार के वर्द्धमान मंदिर में लिखी गई । इसकी भाषा प्राचीन मरुगूर्जर है। इसमें चन्द्रलेखा-सागरचन्द्र की कथा के माध्यम से सतीत्व का महत्व बताया गया है। भगवतीदास की दो रचनायें साहित्येतर विषयों पर मिली हैंज्योतिषसार और वैद्यविनोद । इनसे लगता है कि वे साहित्य के अलावा ज्योतिष, वैद्यक आदि के भी जानकार थे। उनका हिन्दी और अपभ्रंश आदि भाषाओं पर अच्छा अधिकार था। कवित्व शक्ति उच्च १. डॉ० प्रेम सागर जैन-जन भक्ति काव्य पृ० १६६ २. डॉ० कस्तूर चन्द कासलीवाल-राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डार की ग्रन्थ सूची भाग ५ पृ० २०-३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002091
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages704
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy