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भगवतीदास
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कोटि की थी। उन्होंने प्रभूत परिमाण में साहित्य सृजन किया जैसे आदित्यब्रतरास, दशलक्षणरास, खिचड़ीरास, साधु समाधिरास, रोहिणीव्रतरास, आदित्यवार कथा, अनथामी कथा आदि व्रत पूजा से सम्बन्धित रचनाओं के अलावा आदिनाथ स्तवन, शान्तिनाथ स्तवन आदि तीर्थंकरों के स्तवन भी कई लिखे हैं । इनमें से अधिकतर रचनायें १८ वीं शती में पड़ती हैं अतः उनके विवरण नहीं दिये गये हैं । जो विवरण-उद्धरण उपलब्ध हैं उनसे पूर्णतया प्रमाणित होता है कि वे एक श्रेष्ठ कवि थे। जैन साहित्य में इनके आस-पास ही चार भगवतीदासों का उल्लेख मिलता है। पहले ब्रह्मचारी भगवतीदास जिनदास के गुरु थे। जिनदास ने ब्रह्मचारी भगवतीदास का उल्लेख जंबूस्वामीचरित्र में किया है। दूसरे भगौतीदास बनारसीदास के पंचमहापुरुषों में एक थे। अतः उनका काल भी १७वीं शताब्दी में ही पड़ता है। तीसरे भगवतीदास भट्टारक महेन्द्रसेन के शिष्य प्रस्तुत कवि भगवतीदास ही है । चौथे भगवतीदास भैया भगवतीदास के नाम से प्रसिद्ध हैं । वे पूर्णतया १८वीं शताब्दी के कवि हैं । इसलिए पहले भगवतीदास १७वीं से पूर्व के और चौथे भगवतीदास १८वीं शताब्दी के हैं। पर दो-पं० भगवतीदास और भगौतीदास १७वीं शताब्दी के ही हैं । शायद वे दोनों एक ही हों। डा० कस्तुरचन्द कासलीवाल ने पं० भगवतीदास और भगौतीदास (बनारसीदास के मित्र) को एक में मिला दिया है। इन्होंने 'अर्गलपुर-जिनवंदना' नामक एक रचना का कर्ता भगौतीदास या भगवतीदास को बताया है और ऐसा प्रतीत होता है कि यह रचना भगौतीदास की हैं जो कवि बनारसी दास के मित्र थे।
भगौतीदास कृत अर्गलपुर जिनवंदना में (सं० १६५१) आगरे के सभी जिन मंदिरों और चैत्यालयों का वर्णन किया गया है। इसमें २१ पद्य हैं। प्रत्येक पद १२ पंक्तियों का है। गीत का टेक है
अर्गलपुर पट्टणि जिणमंदिर जो प्रतिमा रिसिराई । एक जिनालय का वर्णन करता हुआ कवि लिखता है
साहु नराइनी कीउ जिनालय अति उत्तग धुज सोहइ हो, गंध कुटी जिनबिंबविराजत अमर खचर खोहइ हो।
x समुझि सखहि मनमांहि सगुण जण सुनिबानी गुरुदेवा,
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