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भगवतीदास
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है ब और च के लिखने-पढ़ने में किसी स्तर पर भ्रम हो गया है। अजमेर के भट्टारकीय शास्त्र भण्डार में एक बड़ा गुटका है जिसमें भगौतीदास की सभी रचनायें हैं।
सीतासुत में मंदोदरी और सीता का संवाद है। मंदोदरी रावण का वरण करने के लिए सीता से आग्रह करती है किन्तु सीता अपने सतीत्व पर दृढ़ रहती है। यह संवाद बारहमासे के तर्ज पर लिखा गया है। जैसे आषाढ़ आने पर मंदोदरी सीता को समझाते हुए कहती है :--
तब बोलइ मंदोदरि रानी, रुति अषाढ़ घन घट घहरानी, पीय गये ते फिर घर आवा, पामर नर नित मंदिर छावा । लवहि पपीहे दादूर मोरा, हियरा उमंग धरत नहि भोरा। बादर उमहि रहे चौमासा, तिय पिय बिनु लिहिं उसन उसासा । नन्हीं बद झरत झर लावा, पावस नभ आगमु दरसावा । दामिनि दमकत निसि अँधियारी, विरहिनि काम बान उरि मारी। भुगवहि भोग सुनहिं सिख मोरी, जानत काहे गई मति भोरी।
मदन रसाइन हुइ जग सारु, संजम नेम कथन विवहारु ।' मंदोदरी की बातों का सीता इस प्रकार उत्तर देती है-.
अपना पिय पद अमृत जानी, अवर पुरुष रवि दग्ध समानी, पिय चितवनि चितु रहइ अनंदा, पिय गुन सरस बढ़त जसकंदा । प्रीतम प्रेम रहइ मनपूरी, तिनि बालिमु संग नाहिं दूरी।
मनकरहा रास-यह भी एक रूपक काव्य है। मन को करहा (ऊँट) कहा गया है। लगता है कि कवि ने यह उपमा मुनि रामसिंह के पाहुड़ दोहा से लिया है । इसमें कुल २५ पद्य हैं ।
संसार रूपी रेगिस्तान में मनरूपी करहा के भ्रमण का रूपक बाँधा गया है । रचना सरल एवं मौलिक है ।
जोगीरास (३८ पद्य)-जीव इन्द्रियसुख के पीछे संसार में भटकता है । कवि कहता है कि अपने मन को स्थिर कर अपने अंतर में चिदानंद का अनुभव करके भवभ्रमण से मुक्त होना ही परम पुरुषार्थ है, यथा१. डॉ० प्रेम सागर जैन-- हिन्दी जैन भक्ति काव्य पृ० १६४-१६८
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