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पुरी उजैनी कविनिको दासु, बिस्नु तहां करिरह्यौ निवास । मन वचक्रम सुनी सबु कोइ, वंध्या सुनै पुत्रफल होइ ।
रचना का प्रारम्भ
प्रथम नवति वंदौ जिन देव, ताके चरननि प्रनऊ सेव, औह गौतम गनराजु मनाइ, मुनि सारद के लागी पाइ ॥ १
मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
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बीरचंद - आप भट्टारक लक्ष्मीचंद्र के शिष्य थे । इनका सम्बन्ध सूरत की भट्टारकीय गादी से था । आपकी व्याकरण एवं न्यायशास्त्र में विशेष गति थी । छंद, अलंकार और संगीत में भी रुचि थी । ये वादशिरोमणि कहे जाते थे । साधुचर्या का कठोरता से पालन करते थे । नवसारी के शासक अर्जुन जीवराज इनका बड़ा सम्मान करते थे । भट्टारक शुभचंद्र, सुमतिकीर्ति और वादिचंद आदि ने अपनी रचनाओं में वीरचंद की प्रशंसा की है । वे संस्कृत, प्राकृत, गुजराती और हिन्दी के अच्छे विद्वान् तथा लेखक थे । उनकी आठ रचनायें उपलब्ध हैं - वीरविलासफाग, जम्बूस्वामीबेलि, जिनआंतरा, सीमंधरस्वामी गीत, संबोधसत्ताणु, नेमिनाथरास, चित्तनिरोधकथा और बाहुबलिबेलि ।
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जिसमें २२ वें तीर्थंकर नेमिगया है । इसमें कुल १३७
वीरविलासफाग एक खण्ड काव्य है नाथ की जीवन घटनाओं का वर्णन किया पद्य हैं । रचना के आरम्भिक अंशों में नेमि के सौन्दर्य और बाद के पद्यों में राजुल की शोभा का मनोहर वर्णन है । नेमि की शोभा का वर्णन इन पंक्तियों में प्रस्तुत है
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वेलि कमलदल कोमल, सामल वरण शरीर,
त्रिभुवनपति त्रिभुअन निलो, नीलो गुणगंभीर, लीलाललित नेमीश्वर अवलेश्वर उदार,
प्रहसित पंकज पांखडी अंखडी रूप अपार ।
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राजुल की सुन्दरता इन पंक्तियों में वर्णित है
कठिन सुपीन पयोधर, मनोहर अति उत्सङ्ग,
चंपकवर्णी चंद्राननी, माननी सोहि सुरङ्ग ।
कामता प्रसाद जैन - हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास पृ० १३०
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