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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास स्तोत्र माला से उद्धरण दिए हैं किन्तु विस्तारभय से अधिक उद्धरण नहीं दिये जा रहे हैं। कुछ उद्धरण विवरण 'अर्द्धकथानक' से देना अपेक्षित है। यह एक सफल आत्मकथा है। इसमें कवि ने अपने दोषों को भी खुलकर मध्यदेश की बोली में व्यक्त किया है। व्रजभाषा और खड़ी बोली की मिश्रित शैली को ही कवि ने मध्यदेश की बोली कहा है, यथा-- मध्यदेस की बोली-बोलि, गर्भित बात कहौं हिय खोलि ।
अरबी-फारसी के चलते शब्द भी यत्रतत्र प्रयुक्त हए हैं। इसमें सं० १६९८ तक की सभी घटनायें आ गई हैं। ५५ वर्ष को आधी आयु मानकर इसका नाम उन्होंने अर्द्ध कथानक रखा था पर इसके दो ही वर्ष बाद उनकी मृत्यु हो गई। इसलिए यह उनकी एक तरह से पूर्ण प्रामाणिक जीवनी है। इसमें छह सौ पचहत्तर दोहे-चौपाइयाँ हैं । कवि के जीवन काल की अनेक प्रमुख ऐतिहासिक महत्व की घटनाओं का इसमें उल्लेख मिलता है जैसे आगरे में फैली प्लेग की भयंकर महामारी का वर्णन इन पंक्तियों में देखिये
इस ही समय इति विस्तरी, परी आगरे पहिली मरी। जहाँ तहाँ सब भागे लोग, परगट नया गाँठ का रोग । निकसै गांठि मरै दिन मांहि, काहू की बसाय कछु नाहि । चूहे मरै वैद्यनहि जांहि, भय सों लोग अन्न नहिं खांहि ॥'
ये संपूर्ण जैन साहित्य में अद्वितीय कवि हैं। नाथूराम प्रेमी ने लिखा है कि जैनों में इनसे अच्छा कोई कवि ही नहीं हुआ। यह कथन काफी हद तक उचित भी लगता है । इनकी रचनाओं में साम्प्रदायिक सौमनस्य, विश्वमानव-प्रेम और अहिंसा का सन्देश भरा हुआ है। पहले कहा गया है कि बनारसी दास श्वेताम्बर मुनि भानुचंद्र के भक्त थे, दूसरी ओर उनके अधिकतर ग्रन्थ दिगम्बर आचार्यों की रचनाओं से प्रभावित हैं । अकबर की समन्वयवादी धार्मिक नीति का उदार एवं प्रशस्त प्रभाव तत्कालीन संपूर्ण सांस्कृतिक वातावरण पर दिखाई पड़ता है और महाकवि बनारसीदास, तुलसीदास, सुन्दरदास आदि की रचनाओं में वह धार्मिक समन्वयवादी वृत्ति स्पष्ट दिखाई पड़ती है। १. डॉ० कस्तुर चन्द कासलीवाल-प्रशस्ति संग्रह पृ० २४०, २५८, २७०
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