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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास जातीय समन्वय को अधिक अनुकूल वातावरण मिला। जो पहिले मन्दिरों में मर्तिपूजा करते थे वे विधर्मी होने पर पीर-दरगाह, औलिया, मजार आदि पूजने लगे। वे मुसलमान बनने पर भी मांस भक्षण और विधवा विवाह से बचते थे। यह सांस्कृतिक समन्वय का प्रथम चरण था।
इस काल के विद्वानों और कलावन्तों ने एक दूसरे की कलाशैलियों और भाषा साहित्य का अध्ययन किया और पारस्परिक सूझबूझ तथा -समन्वय को बढ़ावा दिया। सूफियों के चिश्तिया, सुहरवर्दी, कादिया
और कलंदरिया आदि सम्प्रदायों ने इस समन्वय की दिशा में शुरू से ही महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया था। धर्म के क्षेत्र में हिन्दू निर्गुणवाद और मुस्लिम एकेश्वरवाद में कोई बड़ा भेद नहीं था। जैन और बौद्ध तो पूर्णतया निर्गुणवादी ही थे। हिन्दू धर्म में शंकराचार्य के अद्वैतवाद का मुसलमानों के एकेश्वरवाद से मेल बैठाने में अधिक दिक्कत नहीं हुई। सूफियों का प्रेममार्ग और सगुणोपासकों की प्रेमाभक्ति सगोत्री प्रवत्तियाँ थी। दोनों ही जातिपाँति का भेदभाव भुलाकर दोनों सम्प्रदायों से अलग ही सन्तों का एक ऐसा विशेष वर्ग तैयार करना चाहते थे जहाँ 'जातिपांति पूछे नहि कोई, हरि का भजै सो हरि का होई, वाला सिद्धान्त ही प्रधान रूप से मान्य हो । ये लोग विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों में समन्वय और मेल मिलाप के हामी थे। हिन्दुधर्म और इस्लाम धर्म के मेलमिलाप में रामभक्ति के रामानन्दी सम्प्रदाय ने भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। 'रामानन्द ने परम्परा से हटकर निम्न वर्गों को पूर्ण धार्मिक समानता प्रदान की तथा एक ऐसे सम्प्रदाय की स्थापना की जो हिन्दू और मुसलमान दोनों की भक्ति की अभिव्यक्ति कर सके।
इस मेलमिलाप की पृष्ठभूमि पर अकबर ने सांस्कृतिक समन्वय का कार्य आगे बढ़ाया और दोनों सम्प्रदायों के बीच रोटी-बेटी का सम्बन्ध भी स्थापित कर लिया। वह पंडितों की तरह बड़ा टीका लगाता था और सभी धर्मों के गुणज्ञों तथा कलाकारों का प्रशंसक था। मियाँ तानसेन, फैजी, अबुलफज़ल और रहीमखानखाना तथा बीरबल आदि गुणियों का वह बड़ा सम्मान करता था। महेशदास नामक अकिंचन ब्राह्मण की हाजिर जबाबी से प्रसन्न होकर उसने उसे नगरकोट का १. डा० राधाकमल मुखर्जी-भारत की संस्कृति और कला पृ. २८४
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