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उपोद्घात
१३ इलाही का प्रारम्भ वि० सं० १६३६ में ही कर दिया था। वह पारसी धर्म गुरुओं-दस्तूर और कैवन तथा गोवा के ईसाई पादरियों-ऐक्वाबीना और मांसेराट से भी विचार-विनियम करता था। हिन्दू धर्म, दर्शन और साहित्य का तो बह पारंगत पंडित ही हो गया था।
अकबर और भानुचन्द उपाध्याय-अकबर ने भानुचन्द को सलीम का शिक्षक नियुक्त किया था । लाहौर में ही समयसुन्दर के साथ इन्हें भी उपाध्याय की पदवी प्रदान की गई थी। भानुचन्द ने अकबर के लिए 'सूर्यसहस्रनाम स्तोत्र' की रचना की थी। उनका भी अकबर पर बड़ा प्रभाव था। वे दानियाल को भी जैनधर्म की शिक्षा देते थे।
सम्राट् जहाँगीर से जैनधर्म का सम्बन्ध - अकबर की भाँति जहाँगीर भी जैन धर्म के प्रति आदर-भाव रखता था। अपने शिक्षक उपाध्याय भानुचन्द के प्रति उसके मन में बड़ा सम्मान था। उसने मांडवगढ़ में उपाध्याय भानुचन्द से प्रार्थना की थी कि वे उसके समान उसके पुत्र शहरयार को भी शिक्षा दें " - सहरियार भणवा तुम बाट जोवइ । पढ़ाओ अह्म पूत कू धर्मबात, जिउं अवल सुणता तुम्ह पासि तात ।" सं० १६६९ में जब जहाँगीर ने नाराज होकर सब साधुओं को नगर निष्कासन का आदेश दिया था तब आ० जिनचन्द्र सूरि पुनः आगरा जाकर सम्राट् से मिले थे और उनके समझाने-बुझाने पर वह कर आदेश रद्द किया गया था। सं० १६७४ में जहाँगीर ने विजयसेन के पट्टधर विजयदेवसूरि को मांडवगढ़ में ही 'जहाँगीरी महातपा' का विरुद प्रदान किया था। इस प्रकार अकबर और जहाँगीर के समय जैनसंघ और उसके साधु-संतों का शासन से सन्दर सम्बन्ध रहा । इससे धर्म के प्रचार-प्रसार में बड़ी सुविधा हो सकी थी।
सांस्कृतिक समन्वय-समन्वय का कार्य तो पहले से प्रारम्भ हो चुका था, पर मुगल शासनकाल में जब राज्यव्यवस्था एवं शासन प्रबन्ध के लिए हिन्दुओं का अधिक सहयोग लिया जाने लगा तब दोनों कौमों को और अधिक निकट आने का सुअवसर मिला। जिन भारतीयों को बलपूर्वक या प्रलोभनपूर्वक विधर्मी बनाया गया था वे संस्कार से भारतीय ही बने रहे। इनके संसर्ग से अन्य. मुसलमानों में भी भारतीय रहन-सहन, आचार-विचार, रीति-रिवाज और खानपान की बहुत सी बातों का धीरे धीरे प्रवेश होता गया। मुगलकाल में इस १. ऐतिहासिक रास संग्रह भाग ४, पृ० १०९.
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