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मरु-गुर्जर जैन सासित्य का बृहद् इतिहास सीकरी में रहकर सूरि जी आगरा आये और वहीं चातुर्मास किया। अबुलफजल की सलाह पर और हीरविजय सूरि की वृद्धावस्था का ध्यान रखते हुए सम्राट ने विजयसेन सूरि को भी बुलवाया और सं० १६४० में ही हरिविजयसूरिको 'जगतगुरु' तथा विजयसेनसूरिको 'सवाई' का विरुद प्रदान किया। इससे जैन धर्म का स्थान सामान्य लोगों की दृष्टि में काफी ऊँचा हो गया। इस मुलाकात में कर्मचंद और मानसिंह की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण थी। कर्मचन्द बीकानेर नरेश कल्याणमल्ल के मंत्री थे जो बाद में अकबर के दरबारी हो गये थे। मानसिंह जिनचन्द्र सूरि के शिष्य थे और बाद में आचार्य जिनसिंह सूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए थे। इन्हीं लोगों के प्रयत्न से सम्राट की भेंट -खरतरगच्छीय आचार्य जिनचन्द्र सूरि से भी संभव हुई थी।
जिनचन्द्र सूरि और सम्राट अकबर - कर्मचन्द मंत्री के कथनानुसार अकबर ने जिनचन्द्र सूरि से सं० १६४९ में लाहौर में मुलाकात की। वह सूरिजी की विद्वत्ता और वक्तृत्व शक्ति से बड़ा प्रभावित हुआ। उसने सूरिजी को 'युगप्रधान' और उनके शिष्य मानसिंह को आचार्य का पद प्रदान किया और मानसिंह का नाम जिनसिंह सूरि रखा गया। इस अवसर पर मन्त्री कर्मचन्द ने बड़ा उत्सव किया था। इनके साथ भी अनेक विद्वान-साधु गये थे जिनमें महोपाध्याय समयसुन्दर ने 'राजा नो ददते सौख्यम्' के आठ लाख अर्थों की रचना करके अकबर एवं उनके नौ रत्नों को चमत्कृत कर दिया था। इस समय भी अकबर ने जीवहिंसा निषेध, जजिया माफी आदि की घोषणायें की थीं । इन जैनाचार्यों के प्रभाव में उस समय अकबर इतना अधिक आ गया था कि लोगों की धारणा हो गई कि अकबर ने जैनधर्म स्वीकार कर लिया है, पर जैसा पहले कह चुका है कि वह किसी धर्मविशेष का अनुयायी नहीं बनना चाहता था बल्कि वह सभी धर्मों का समान आदर करता था और सभी धर्मों की अच्छी बातें लेकर वह स्वयं धर्म प्रवर्तक बनना चाहता था। स्मरणीय है कि उसने दीन१ रायसिंह या रायमल्ल कल्याणमल्ल के राजकुमार थे। कल्याणमल्ल ने
सम्राट अकबर को प्रसन्न करने के लिए मंत्री कर्मचंद के साथ राज कुमार रायमल्ल को भी सम्राट की सेवा में लगा दिया था। बीकानेर में सं० १६२९ से सं० १६६७ तक रायसिंह का शासन था। इसलिए यह घटना उन्हीं के शासनकाल की होगी। कल्याणमल का शासन काल इससे पूर्व
था।
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