________________
ऐसी मूढ़ दशा में मगन रहै तिहुंकाल,
धावे भ्रम जाल में न पावै रूप अपना ॥ भाषा का वैभव, छन्द का प्रवाह और भक्ति की प्रगाढ़ता इन दो पंक्तियों में देखिये
मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
――――
मदन कदनजित परम धरमहित,
सुमिरत भगति भगति सब डर सी,
सजल जलद तन मुकुट सपत फन,
कमठ दलन जिन नमत बनरसी । पार्श्वनाथ की स्तुति से ये पंक्तियाँ ली गई हैं जिनके वे 'दास" (भक्त) थे ।
बनारसी विलास - आपकी रचनाओं का संग्रह ग्रन्थ है । इसमें इनकी ५० रचनायें संकलित हैं । यह संकलन आगरा के दीवान जगजीवन द्वारा किया गया था । इसमें इनकी अन्तिम रचना कर्मप्रकृति विधान, जो सं १७०० फागुन सुदी ७ को समाप्त हुई थी, भी संकलित है । इसके अलावा ज्ञानबावनी सं० १६८६; जिनसहस्रनाम सं० १६९० सूक्तिमुकावली १६९१ आदि भी संकलित हैं जिनसे कुछ उदाहरण भाषा, भाव और गेयता के उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत कर रहा हूँ ।
Jain Education International
पद
दुविधा कब जैहै या मन की ।
कब जिननाथ निरंजन सुमिरौं, तजि सेवा जन-जन की । कब रूचि सौ पीवै दृग चातक, बूँद अखय पद धन की । कब शुभ ध्यान धरौ समता गहि,
करूँ न ममता या तन की, दुविधाकत्र जै है ।
'नवरस' के बाद बनारसीदास ने 'मोहविवेक युद्ध' लिखा था । कवि उस समय वास्तविक जीवन में भी मोह और विवेक के युद्ध में फँस था । मोह की असारता का आभास तो हो ही गया था, तभी तो 'नवरस' को प्रवाहित कर दिया होगा । इसमें ११० पद्य हैं, इसकी शैली कवि की अन्य प्रौढ़ रचनाओं की तुलना में हल्की है । पं० नाथूराम प्रेमी द्वारा संपादित बनारसी विलास में पहले की अपेक्षा तीन नये पद अधिक संकलित हैं । जयपुर से भी इसका प्रकाशन हुआ है ।
१. डॉ० प्रेमार जैन - जैन भक्ति काव्य पृ०१८५
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org