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बनारसीदास
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_ कवि ने यह कथामृत श्री विजयाणंद गुरु के श्रीमुख से ही ग्रहण किया था
तस मुख कमल थी ओ लही वाणि, मई रास को सहि जाणि ।
वारेजा वर नगर मझारि, अल्प बुद्धि कर्यो गुरु-आधारि। अन्त में रचनाकाल पुनः दिया है, यथा--
संवत (१६) सोल छयासीइ जाणि, पोस सुदि तेरसि चढ़िउ धमाण बार गुरौ सर्वाकंज सार, भणइ गुणइ तस जय जयकार ॥' यह रचना-'आनंद काव्य महोदधि' में प्रकाशित है।
बनारसीदास -आपने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'अर्द्ध कथानक' में अपना जीवनवृत्त लिखा है । उसके आधार पर संक्षेप में दिया जा रहा है।
जीवनवृत्त-प्राचीन हिन्दी साहित्य में यह प्रथम आत्मचरित है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने इतिहास में इसका उल्लेख किया है। इस आत्मचरित के अनुसार महाकवि के पितामह मूलदास नरवर के नवाब के मोदी थे और फारसी-हिंदी के विद्वान् थे। मूलदास की मृत्यु के बाद किसी बात से नाराज होकर नवाब ने सब धन-सम्पत्ति छीन ली और उनकी विधवा अपने पुत्र खड्गसेन के साथ अपने मैके-जौनपुर में आकर रहने लगीं। जौनपुर को पठान जौनशाह ने बसाया था। यह उस समय बड़ा सम्पन्न नगर था। खड़गसेन के नाना मदनसिंह चिनालिया जौनपुर के प्रख्यात जौहरी थे। खड़गसेन बड़े होकर आगरा चले गये और वहाँ साझे में व्यापार शुरू किया, व्यापार अच्छा चला; शादी की, पुत्र हुआ पर मर गया; तो दूसरे पुत्र के लिए बनारस आकर पार्श्वनाथ की मनौती की गई। फलतः जो पुत्र हआ, उसका नाम विक्रमाजीत से बदलकर बनारसीदास रखा गया क्योंकि वह बनारस के पार्श्वनाथ की कृपा से उत्पन्न हुआ था।
बनारसीदास की तीन शादियां हुई। पहिली शादी तो विद्यार्थी अवस्था में ही खैराबाद के कल्याणमल की पुत्री से हो गई थी। वह शीघ्र ही दिवंगत हो गई। इन्होंने पंडित देवदत्त से नाममाला, अनेकार्थ, ज्योतिष, अलंकार आदि का अध्ययन किया था। बाद में १. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० २८६ (द्वितीय संस्करण) और भाग १
पृ० ५४२-४५ (प्रथम संस्करण)
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