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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास लड़ने का बीड़ा लेता है। राजा को उसकी वीरता पर शंका होती है तब वह उत्तर देता है
रण संग्राम पीठ नहिं देउं, हांको सुभट जगत यश लेउं ।
परचक्री आन लगाऊं पाय, तो मुंह दिखाउँ तुझको आय ।। उसने जैसा कहा था वैसा ही युद्ध क्षेत्र में किया
रणसंग्राम भिड़े सो जाय, पायक लाग्या पायक आय । गयवर सो गयवर भिड़े, रथ सेती रथहीं सो जुड़े। रणधर आगै भाग वीर, कोलाहल सेनाह गहीर । अनी मुड़ी पोदनपुरराय, उलटा दल भाग्या सो जाय ॥'
भविष्यदत्त ने शत्रु को बन्दी बनाया और उसे लाकर राजा के चरणों में डाल दिया।
रचना में काव्यत्व अति सामान्य कोटि का है।
बाना श्रावक विजयाणंद सूरि के श्रावक शिष्य थे। विजयाणंद सूरि का जन्म सं० १६४२, आचार्य पद स्थापना सं० १६७६ और स्वर्गवास सं० १७११ में हुआ था। बाना श्रावक का समय भी १७वीं शताब्दी में ही होगा। आपकी प्रसिद्ध रचना 'जयानंदरास' ५ खण्डों में विभक्त है, और १२०७ कड़ियों की विस्तृत रचना है। यह सं० १६८६ पौष शुक्ल १३, गुरुवार को अहमदाबाद के पास बारेजा में लिखी गई। कवि ने कृति के प्रारम्भ में गुरु विजयाणंद को सादर स्मरण करते हुए लिखा है--
शांति जिनवर शांति जिनवर नमीय बहुभत्ति; श्री सारदा समरी सदा, करुं चरित्र मनिरंग आणीय । जयानंद गुण वर्णवं श्री विजयाणंद गुरुलहीय वाणीय । हंसासनि सेवं सदा कवियण नी आधार,
सरस कथा जयानंद नी आवीकर जे सार । रचनाकाल-कुग संवत्सर कुण दिन, हुवो केमो हुल्लास,
संवत सोले छयासिये गुरुवारे जे चोमास । १. श्री कामता प्रसाद जैन -हिन्दी जैन साहित्य का संक्षित इतिहास पृ०
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