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प्रेममुनि
प्रेममुनि-आप लोकागच्छ से सम्बद्ध थे। आपकी दो रचनाओं का विवरण मिलता है :-(१) मंगलकलशरास और (२) द्रौपदी रास । मंगलकलशरास की रचना सं० १६९२ में हुई। द्रौपदीरास की रचना एक वर्ष पूर्व अर्थात् सं० १६९१ में हो गई थी जैसा कि निम्न पंक्तियों से प्रकट होता है
संवत सोल अकाणु , श्रावणसुदिरे बीजि गुरुवार,
रास रच्यो मइ रंगिस्य, प्रेमइ गायइरे भणइ नरनारि । इसका प्रारम्भ निम्न दूहे से हुआ है
विमलमति सरसति मुदा, समरी मनि आणंद,
गास्यु साध सिरोमणी, पांडव पांच मुणिंद ।' द्रौपदीरास में केवल 'प्रेम' नाम आया है इसलिए जैन गुर्जर कविओ के नवीन संस्करण के संपादक ने शंका उठाई है कि पता नहीं कि मंगलकलशरास के कर्ता प्रेममुनि और द्रौपदीरास के कर्ता प्रेम एक ही व्यक्ति हैं या दो ? क्योंकि 'प्रेम' के साथ लोकागच्छ का उल्लेख नहीं हुआ है।
प्रेमविजय-ये तपागच्छ के साधु विनयहर्ष के शिष्य थे। उन्होंने सं० १६६३ में 'आत्मशिक्षा' नामक रचना उज्जैन में की। यह प्रकाशित हो चुकी है।३ श्री देसाई ने इन्हें तपागच्छीय विजयसेन का प्रशिष्य और विमलहर्ष का शिष्य बताया है। आत्मशिक्षा या आत्मशिक्षा भावना में १८५ दोहे हैं । यह सं० १६६२ वैशाख शुक्ल १५ गुरुवार को उज्जैन में लिखी गई । रचना 'जैनप्रबोध' पुस्तक के पृ० ३७७ से ३९३ पर प्रकाशित हुई है। मंगलाचरण इन पंक्तियों से हुआ है
श्री सरसति जिन पाय नमी, मन धरि हर्ष अपार
आतमशिक्षा भावना, भणुं सुणो नरनार । १. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० १०५५ (प्रथम संस्करण) और भाग १
पृ० ५६७ (प्रथम संस्करण) २. वही, भाग ३ पृ० २८१ (द्वितीय संस्करण) ३. श्री अगर चन्द नाहटा-परम्परा पृ० ९० ४. जैन गुर्जर कवि भो भाग २ पृ० ३८२-३८३ (द्वितीय संस्करण)
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