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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
संवत सोल नेव्यासीइ, श्रावणमास रसाल,
सुदी तीथि पंचमी निरमला, ऋद्धि वृद्धि मंगल माल । या तो पुण्यसागर ने अपनी रचना से चार-पांच वर्ष पूर्व रची गई पुण्यभुवन की रचना का कुछ अंश इसमें डाल दिया हो या श्री देसाई से भ्रमवश पाठों में घालमेल हो गया हो, यह स्पष्ट नहीं है, पर कुछ न कुछ गड़बड़ अवश्य हुआ है। आठवीं ढाल के चार छन्द दोनों रचनाओं में ज्यों के त्यों मिलते हैं यह विचारणीय है। इसका प्रारम्भ इन पंक्तियों से हुआ है
गौतम गणधर प्रमुख अकादश अभिराम
मनवांछित सुख संपजइ नित समरता नाम । ठीक इन्हीं पंक्तियों से पुण्यभुवन की कृति का भी आरम्भ हुआ है । श्री कस्तूर चन्द कासलीवाल ने इसका नाम अंजनासुन्दरीचउपइ कहा है और सं० १६८९ श्रावण शुक्ल पंचमी तिथि रचनाकाल बताया है।' उन्होंने इसकी अन्तिम पंक्तियां इस प्रकार बताई हैं
ते गछ दीपै दीपतउ सांचउर मझार, वीर जिणेसर रो जिहां तीरथ अछइ उदार ।
गुरुपरंपरा-तासु पाटि अनुक्रमि आलसमीसागरसूर,
विनयराज कर्मसागर वाचक दोऊ सबूर । तास सीस पुण्यसागर वाचक भण एम;
अंजना सुन्दरी चउपइ परणु वचते प्रेम ॥' ऊपर की ये दोनों पंक्तियाँ जैन गुर्जर कविओ भाग ३ के पृ० २०४ पर भी दी गई हैं। अतः यह अवश्य कोई स्वतंत्र कृति है किन्तु इसमें दो रचनाओं का पाठ मिश्रित हो गया लगता है। इस विषय में शोध की आवश्यकता है।
नयप्रकाश रास का उद्धरण अप्राप्त होने के कारण देना संभव नहीं हुआ। १. डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल-राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डार की ग्रन्थ
सूची भाग ५ पृ० ३१४ २. वही
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