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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
१६०४ बताया है, ' वही ठीक लगता है । श्री कस्तूरचंद कासलीवाल ने रचनाकाल सं० १६७४ बताया है, लेकिन वह संगत प्रतीत नहीं होता है । कवि ने स्वयं रचनाकाल इस प्रकार बताया है
संवत सोल चडोतर बरसइ, जेसलमेरु नयर सुभदिवसइ, श्री जिनहंससूरि गुरु सीसइ, पुण्यसागर उवझाय जगीसइ । श्री जिन माणिक सूरि आदेसइ, सुबाहुचरित भणियउ लवलेसइ । पास पसायइ ओ रिषि थुणतां, रिद्धि सिद्धि थायउ जितु भणता ।
अर्थात् यह रचना जिनहंस सूरि के समय या उसके कुछ आस-पास ही रची गई होगी । अतः चडोतर का अर्थ चार तो ठीक लगता है पर चौहत्तर उचित नहीं लगता । इसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ इस प्रकार हैं
पणमी पास जिणेसर केरा, पयपंकज सुरतरु अधिकेरा, जसु समरण सीझइं बखाणी, ते गुरु सुयदेवी मन आणी । वीर जिणंद इग्यारम अंगइ, सोहम आगलि सुखदुख भंगइ, सुख विपाक बीजइ सुय खंधइ, दसम अज्झयण तणइ परवंधइ |
इनकी दूसरी रचना साधुवंदना (८८ गाथा ) के अलावा कई अन्य स्तवनादि श्री अगरचन्द नाहटा के संग्रह में उपलब्ध हैं । " साधुवंदना - का प्रारम्भ इस प्रकार है
पंच परमेठि पयकमलवंदीकरी;
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साधु भगवंत नै नामग्रहण करी,
भावबलिमाल लि अह अंजलि धरी,
जम्म सुपवित्त हुं करिस श्रुत अणसरी ||१ अंत-इम सुगुरु श्री जिनहंससूरिस, तासु सीसें अभिनवो । उवझाय वर श्री पुण्यसागर कहै अ रिषि संथवो । उपदेश श्री जिनचंद्र सूरीसर तणे जे मुनि थुणे, तसु साधुवंदण सुहानंदन हवउ सिवसुखकारण ४
- १. जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० १९-२१ (द्वितीय संस्करण )
२. डॉ० कस्तूर चन्द कासलीवाल - राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डार की ग्रन्थ सूची भाग ५ पृ० ४१७
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३. श्री अगर चन्द नाहटा - परम्परा पृ० ७२
४. जैन गुर्जर कविओ भाग १ पृ० १८८ और भाग ३ पृ० ६५३-५५ (प्रथन संस्करण )
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