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उपाध्याय पुण्यसागर
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आपकी दूसरी रचना 'सुधर्मा स्वामी रास' ७२ कड़ी की है । यह सं० १६४०, फाल्गुन शुक्ल १३, गुरुवार को पटेलाद में पूर्ण हुई। इसकी आरम्भिक पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं
वीर जिननइ करूं प्रणाम, सरसति भावि आपु अभिराम । गाऊं गणहर सोहम्म स्वामी, जाइ पाप जस लीधइ नाम । रास के अन्त में रचना सम्बन्धी कई सूचनायें हैं, यथा रचनाकाल
संवत सोल ते जाणज्यो च्यालीस निरधारी,
फागण सुदि तेरसि भली, नक्षत्र रे पुष्यनइ गुरुवार के । गुरुपरंपरा - विधिपक्ष गछइ जाणीइ, श्री सुमतिसागर सूरींद, श्री गजसागरसूरि तस तणइ, पाटइ रे उदयु दिणंद के । तास सीसि पेटलादम रचउ पुण्यरत्नसूरि, ऋषभदेव पसाउलि हुइ रे आनंद भरपुर के ॥७२॥
श्री देसाई ने जैन गुर्जर कविओ के प्रथम संस्करण भाग १ पृ० २४३ पर पुण्यरत्न की एक और रचना 'नेमिरास- यादवरास' का उल्लेख किया है । किन्तु भाग ३ पृ० ७३६ पर लिखा है कि यह रचना भूल से १७वीं शती में दिखाई गई है, वस्तुतः यह १६ वीं शती के अन्य पुण्यरत्न कवि की कृति है । भाग ३ के पृ० ६१८ पर इसका रचना काल १५९६ बताते हुए उसे किसी अन्य पुण्यरत्न की कृति बताया गया है | इसलिए नवीन संस्करण के सम्पादक ने इन पुण्यरत्न के साथ उक्त कृति का उल्लेख नहीं करके उचित ही किया है ।
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उपाध्याय पुण्यसागर - आप खरतरगच्छ के आचार्य जिनहंस सूरि के शिष्य थे । इनके पिता का नाम उदयसिंह और माता का नाम उत्तम दे था । यह तथ्य ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह (सम्पादकश्री अगरचंद नाहटा ) में संकलित पुण्यसागर सम्बन्धी हर्षकुल कृत एक गीत से ज्ञात होता है । जिनहंस सूरि का प्रतिमालेख सं० १५५७ और सं० १५६१ का प्राप्त है । अतः उपाध्याय पुण्यसागर की उपस्थिति भी उसी के आस-पास होनी चाहिये । श्री देसाई ने आपकी रचना 'सुबाहु संधि' (गाथा ८९ सं० १६०४, जैसलमेर) का रचनाकाल सं०
१. जैन गुर्जर कविओ भाग २ १० १६८ (द्वितीय संस्करण)
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