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पुण्यभुवन
इसकी अन्तिम पंक्तियाँ निम्नांकित हैं
भणे गुणे जे सांभले तासु घरे नवनिद्धि, सुमतिपास सुपसाउले थापइ घरि नवनिद्धि ।
मोहछत्तीसी गाथा ३७, सं० १६८४, नागौर में लिखित लघुकृति है । मदबत्तीसी सं० १६८५ आषाढ वदी १३ मेड़ता में लिखी गई । इन दोनों रचनाओं के उद्धरण- विवरण न प्राप्त होने के कारण इनकी भाषाशैली का नमूना देना संभव नहीं हो सका किन्तु जिन कृतियों के विवरण उपलब्ध हैं वे इस बात के सबल प्रमाण हैं कि आप १७वीं शताब्दी के श्रेष्ठ कवियों में गणनीय हैं । इनकी कथा रचना एवं भाषा शैली प्रभावशाली है । आप इन कथाओं के माध्यम से दान, तप आदि का महत्व प्रतिपादित करके पाठकों तक जैनधर्म का संदेश पहुँचाने में सफल हुये हैं ।
पुण्यभुवन- खरतरगच्छीय जिनरंगसूरि के शिष्य थे। आपने उदयपुर में 'पवनंजय अंजनासुन्दरीसुत हनुमंत चरित्ररास' सं० १६८४ माह शुदी ३ गुरुवार को पूर्ण किया, इसमें हनुमान की कथा जैन पुराणों के आधार पर वर्णित है । कवि को इस कथा का सूत्र 'शीलतरंगिणी' नामक ग्रन्थ से मिला, कवि स्वयं लिखता है
शील तरंगिणी ग्रंथ थी, ओ रचीओ संकेत, कांक कविमति केलवी भीन्न कीयो तिणहेति ।
निम्नांकित पंक्तियों से प्रकट होता है कि रचना के समय उदयपुर में राणा जगतसिंह का शासन था ।
श्री जिनराज सूरी पटि दिनकरा, आगम अरथ निधान, श्री जिनरंग सूरीसरु सत्यवर, जाणे सर्वनिधान । तासु आदेस संवत सोल चोरासीई, उद्देपुरी चौमासि जगतसंघ राणो गाजे तिहांकणि, हांछु ऊपतां जसवास ।
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सतीत्व का वर्णन करने के लिए इसमें अंजना का चरित्र प्रमाण रूप में प्रस्तुत किया गया है, यथा
सतीयारे सिर अंजना, बखाणे कविराय,
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सांभलता तन ऊलसे, चतुरोने चित्त दाय ।
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